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मैं बाली, मैं राम

चातक
चातक
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कर्म किये, अपकर्म किये, और काटा बनबास;

बिन आयुध निःशक्त भी होकर सहा महासंत्रास|

मर्यादा सर्वोपरि रखकर त्यागा सुख, विश्राम;

आज उपेक्षित हूँ क्योंकि मैं हूँ बाली, मैं राम||

गृह रक्षा, हो नगर सुरक्षित, निर्भय हों सब बंधु;

कृश तन लेकर नाद किया कि कापें थर-थर सिंधु|

रौद्र रूप और कल्पित मंडल दिखा बचाया धाम;

आज उपेक्षित हूँ क्योंकि मैं हूँ बाली, मैं राम||

रोका बंधु गुफा के बाहर स्वयं बढ़ा आगार;

मरने को प्रस्तुत था क्योंकि था बैरी परमार|

बल तोला, बैरी था भारी, लड़ा मगर अविराम;

आज उपेक्षित हूँ क्योंकि मैं हूँ बाली, मैं राम||

उसका आधा बल था कल्पित मैं न था द्वि, एक;

क्या होगा गृह, नगर मेरा जो देता घुटने टेक!

साहस द्विगुणित करके बैरी को भेजा सुर-धाम;

आज उपेक्षित हूँ क्योंकि मैं हूँ बाली, मैं राम||

कितने बरस बनबास दिया ये पिता ने न बतलाया;

कुनबा जल्दी दृढ हो जायेगा, खुद को समझाया|

नहीं दिया था वक्त पूछने का- क्या करना काम;

आज उपेक्षित हूँ क्योंकि मैं हूँ बाली, मैं राम||

न गिन पाया घड़ी-दिवस न गिनती की बरसों की;

सींच रहा था आशा धरे हथेली ज्यों सरसों की|

विचलित नहीं हुआ, न सोचा क्या होगा परिणाम;

आज उपेक्षित हूँ क्योंकि मैं हूँ बाली, मैं राम||

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