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पिछले कई दिनों से सरकार, आयोग और देश के तथाकथित कर्णधारों से बीच सी-सैट प्रणाली में भाषा को लेकर पकड़म-पकड़ाई का उम्दा खेल देखने को मिल रहा है| ऐसा नहीं है कि सी-सैट का प्रारूप दोष-रहित है; भारत की सरकारी परंपरा को पूरी तरह निभाते हुए इस प्रणाली में भी जानबूझकर पर्याप्त मात्रा में कमियाँ शामिल की गई हैं परन्तु अभी हम केवल उस कमी/पक्षपात पर दृष्टिपात करते हैं जिसपर मीडिया, अभ्यर्थी और स्वदेशी (हिंदी आदि) भाषाओं के हिमायती आंदोलित(?) हो उठे हैं|
मीडिया और आन्दोलनकारी छात्र हिंदीभाषी अभ्यर्थियों की दुर्गति का आंकड़ा प्रस्तुत करते हुए, सी-सैट में शामिल अंग्रेजी भाषा वाले हिस्से की दुरूहता का रोना रोते हुए जिस प्रकार निज-भाषा गौरव का हथियार चला रहे हैं वह कुल समस्या का महज़ दसवें हिस्से के उपचार जैसा ही है| आइये इन असफल अथवा असफलता से भयभीत अभ्यर्थियों की मांग और कारण पर थोड़ा गंभीरता से विचार करें-
यदि आन्दोलनकारियों की बात मान ली जाए तो परीक्षा का परिणाम हिंदी आदि स्वदेशी भाषियों के हित में आने वाला नहीं है लेकिन यह उच्च-स्तरीय प्रतियोगी परीक्षाओं की गुणवत्ता के विरुद्ध जरूर आयेगा| ऐसा मैं ना तो हिंदी विरोध की मानसिकता के कारण कह रहा हूँ और न ही अंग्रेजी समर्थन की मानसिकता के कारण| यहाँ पर मेरी राय का स्रोत भाषाई पक्षपात नहीं है अपितु उस माध्यमिक और उच्च शिक्षा की गुणवत्ता और छात्रों की क्षमता से है जिसे लेकर ये आन्दोलनकारी आज मैदान में हैं| इनमे से अधिकतम आन्दोलनकारी छात्र उन राज्यों से आते हैं जिनमे पिछले दस वर्षों में माध्यमिक और उच्च शिक्षा के साथ जबरदस्त राजनीतिक दुष्कर्म हुए हैं| उत्तर-प्रदेश, मध्य-प्रदेश और बिहार संयुक्त रूप से इस खेल में प्रथम पायदान पर शोभायमान हैं और ये आन्दोलनकारी छात्र इसी दुष्कर्म का नतीजा हैं, दूर से देखने पर प्रतियोगी छात्रों की लगने वाली ये भीड़ वास्तव में राज्यों द्वारा शिक्षा के साथ मनमानी करके उत्पन्न की गई एक लाचार और अक्षम भीड़ है जिसे प्रतियोगी परीक्षाओं में तब तक सफलता नहीं मिलने वाली है जबतक कि ये प्रतियोगी परीक्षाएं उन्हीं अनैतिक संसाधनों से युक्त न की जाएँ जिन संसाधनों की सहायता से ये अपने प्रदेशों में माध्यमिक और उच्च-शिक्षा की परीक्षाओं में उत्कृष्ट अंको वाली डिग्रियाँ लेकर आये हैं|
अब जरा नजर घुमाते हैं सी-सैट के भाषाई दोष की ओर- हमें निःसंदेह ऐसे नौकरशाह और कर्मचारियों की आवश्यकता है जिन्हें अंग्रेजी भाषा की अच्छी समझ हो इसलिए परीक्षा प्रारूप में भाषा वाले हिस्से के दो भाग होने चाहिए एक अंग्रेजी तो दूसरा स्वदेशी (हिंदी आदि) और दोनों ही भाग अनिवार्य रूप से सभी अभ्यर्थियों द्वारा हल किये जाएँ इससे न तो स्वदेशी भाषाओं के साथ अन्याय की संभावना होगी और न ही परीक्षा की गुणवत्ता प्रभावित होगी| सी-सैट की कमियाँ सिर्फ इसी इलाज से दूर नहीं हो सकती परन्तु फिलहाल मुद्दा बन चुकी एक कमी हमेशा के लिए दूर जरूर हो सकती है|
इस परिवर्तन को स्वीकार करना एक अच्छा कदम हो सकता है लेकिन मुझे पूरा विश्वास है कि यह परिवर्तन आन्दोलनकारी छात्रों के लिए कोई सुखद परिणाम लाने वाला नहीं है, क्योंकि उनकी असली ताकत तो पिछले दस वर्षों में राज्य सरकारों द्वारा दूषित माध्यमिक और उच्च शिक्षा चूस चुकी है| बचपन में ही पोलियो का शिकार हुए बच्चे अपना जीवन तो किसी तरह जी लेते हैं लेकिन वे मैराथन के विजेता धावक नहीं हो सकते हलाकि इसमें दोष बच्चे का नहीं बल्कि उस व्यवस्था का है जिसने उन्हें जानबूझकर अपाहिज किया है|
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