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आजकल हमारे देश में एक फैशन चला है; जातिवाद पर तीखी टिप्पड़ी करने का फैशन; स्वयं को जातीयता से मुक्त दिखाने का फैशन; और जातिवाद को समाप्त करके एक जातिविहीन समाज के निर्माण का दम भरने का फैशन| इन सभी प्रलापों पर यदि मैं एक शब्द में टिप्पड़ी करूँ तो केवल इतना कहना पर्याप्त होगा “असंभव”|
लेकिन जैसे ही मैं ये निष्कर्ष उपरोक्त क्रांतिकारी विचारधारा वाले फैशनेबल (बुद्धिजीवी नहीं कहूँगा) लोगों के सामने रखता हूँ उन्हें यत्र-तत्र, सर्वत्र मिर्ची लग जाती है| अक्सर ये आरोप भी झेलना पड़ता है कि मैं जातिवाद का हिमायती हूँ; या फिर मैं रूढ़िवादी हूँ; या फिर मैं जल्दबाजी में निष्कर्ष तक पहुँच गया हूँ, क्योंकि मैंने मसले को गंभीरता से नहीं लिया है|
आज इस समस्या के एक सिरे को पकड़ते हैं- देश को जातियों और वर्गों की जरूरत नहीं है यह एक सच्चाई हैं, परन्तु देश को जातिविहीन नहीं बनाया जा सकता है ये भी दूसरी सच्चाई है| हम देश को जातिविहीन क्यों नहीं बना सकते? इस मुद्दे पर ही चर्चा के दर्जनों बिंदु हैं इसलिए पहले हम देश की आवश्यकता पर विचार करते हैं| देश की आवश्यकता हैं देशवासी, ऐसे देशवासी जो देश को एक संप्रभु राष्ट्र के रूप में देखना और मजूबत बनाना चाहते हों| यदि मैं प्रश्न करूँ कि क्या आप मानते हैं कि भारत एक मजबूत संप्रभु राष्ट्र है? तो सभी का जवाब होगा- “हाँ”| बस यही वह उत्तर है जो मुझे विश्वास दिलाता है कि जातिवाद हमारे देश में अब सिर्फ जातिनाम है जिसका सामाजिक अर्थ और उपयोगिता तो है लेकिन इसका न तो कोई राष्ट्रीय अर्थ हैं और न ही उपयोगिता| दूसरे शब्दों में कहें तो इक्कीसवीं सदी में प्रवेश करने के साथ ही जातिवाद जैसी समस्या हमारे देश से ख़त्म हो चुकी है और इसका कोई भी दखल न तो राष्ट्र में है न ही राष्ट्र की संप्रभुता में|
अब सवाल उठता है कि जब जातिवाद ख़त्म हो चुका है फिर भी यह इतना प्रखर और प्रभावी क्यों है? उत्तर बहुत सरल है- “भारत की राजनीति कभी भी राष्ट्रवाद से प्रेरित नहीं रही| राजनीतिक दलों और राजनेताओं ने जातिवाद के वेंटिलेटर पर ही अपनी राजनीति को जिन्दा रखा है|” इन राजनीतिक दलों और नेताओं के पास कोई राष्ट्रीय सोच नहीं है क्योंकि उसके लिए आपको शिक्षित, सुसंस्कृत, और योग्य होना अनिवार्य है; जबकि दूसरा आसान शार्ट-कट है ‘जातिवाद’ जिसके लिए आपको न योग्यता की आवश्यकता है न सोच की| कमोवेश सभी नेता इसी शार्ट-कट को चुनते हैं और जातिवाद को राजनीतिक पटल पर कभी कमजोर नहीं पड़ने देते हैं|
दूसरी ओर अब समाज पर नजर डालें तो जातिवाद बड़ी आसानी से जनमानस के मन में बैठ जाता है क्योंकि राजनीतिक दल लगातार उनका ब्रेनवाश किया करते हैं| परिणामतः समाज को जोड़ने वाली यही शक्ति समाज को तोड़ने और वैमनस्य को बढाने का काम करना शुरू कर देती हैं| समाज में जातिवाद के विभिन्न पहलुओं पर विचार करने से पहले मैं उन्हीं फैशनेबल लोगों से एक बार फिर विचार करने का आग्रह करूंगा कि यदि उनकी सोच राष्ट्र को शक्तिशाली बनाने की है तो क्या उन्हें अपनी इस सोच में परिवर्तन नहीं लाना चाहिए कि वे जातियों का नहीं वरन जातिवादी राजनीति का विरोध करें? क्या उन्हें जातियों का अंत करने जैसी कोरी हवाई मानसिकता से निकलकर जातीय राजनीति को समाप्त करने के लिए संघर्ष नहीं करना चाहिए? लेकिन ऐसा ये फैशनेबल लोग नहीं करने वाले क्योंकि इन्हें भी अपने व्यक्तिगत हितों और कुत्सित विचारों को राष्ट्रीय सोच से पहले देखना है| इस तरह मैं आज भी हिन्दुस्तान में ‘जाति न पूछो साधु की…..” जैसे उत्तम विचार को कुछ निचली कक्षाओं की पुस्तकों में छपी चंद पंक्तियों तक ही सीमित पाता हूँ|
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