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राजनीति के सॉफ्ट टारगेट

चातक
चातक
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हिन्दुस्तान की राजनीति अपनी शैशवावस्था से ही शिकारी प्रवृत्ति की रही है, यानी लोकतंत्र की शक्तियों को छोड़कर केवल उसकी कमजोरियों का इस्तेमाल किया गया है| परिणाम यह रहा कि जो देश बड़ी आसानी से विकसित होकर आज पूरी दुनिया का रोल-मॉडल बन चुका होता, उसमे आज भी भुखमरी, गरीबी, बीमारी, लाचारी, और अशिक्षा बुरी तरह व्याप्त है|
हिन्दुस्तान के लोकतंत्र को खोखला बनाने की शुरुआत नेहरु की बांटो और राज करो (भारत का बंटवारा), लड़ाओ और राज करो (आज़ाद हिन्दुस्तान के पहले सांप्रदायिक दंगे) की नीति से ही हो गई थी| पहली धार्मिक टूट से काग्रेस को लम्बे समय तक सत्ता का लाभ नही मिल सकता था इसीलिए नेहरु की सत्ता प्राप्त करने की मंशा पूरी होते ही धर्मनिरपेक्षता जैसे भ्रमकारी शब्द को देश की आत्मा में नासूर की तरह डाल दिया गया और वह सॉफ्ट टारगेट जिसने देश का बंटवारा करवाया, नेहरु की इस कृपा का कायल होकर लम्बे समय तक के लिए कांग्रेस का वोट बैंक बन गया| भविष्य की विघटनकारी राजनीति के प्रमुख अधिष्ठाता रहे नेहरु ने न केवल ओछी राजनीति की आधारशिला रखी बल्कि देश के सम्पूर्ण सामाजिक और सांस्कृतिक ताने-बाने को कमजोर और रुग्ण भी बना दिया| इसके सबसे आसान शिकार थे वे लोग जो लम्बे समय से अशिक्षा, शोषण, बीमारी, गरीबी, और तिरस्कार झेल रहे थे| मुग़ल और बरतानिया हुकूमतें तो ख़त्म हो चुकी थी इसलिए इन नए कर्णधारों ने उनके द्वारा फैलाए गिये भ्रष्टाचार, शोषण और दमन के जख्मो का जो आक्रोश था उसे बड़ी आसानी से तथाकथित उच्च जातियों की और मोड़ दिया गया| परिणाम यह रहा कि भारतीय समाज राष्ट्र के रूप में संगठित होने के बजाय जातियों में दरकना शुरू हो गया| मुगलों और अंग्रेजों के अत्याचार को वामपंथी इतिहासकारों ने न्यायप्रिय शासन व्यवस्था, स्थापत्य कला का स्वर्णकाल, उदारवाद, परिष्कृत शिक्षा-प्रणाली बताकर महिमा-मंडित किया| बड़े ही योजनाबद्ध तरीके से दमनकर्ताओं और शोषकों को सुधारक, उद्धारक, महान और प्रतापी बनाकर स्थापित किया गया| राजनीति की इसी विभाजनकारी प्रवृत्ति को साधन बनाकर मुलायम सिंह यादव ने मुसलमानों को पुचकारा तो कांसीराम ने जाने-अनजाने तथाकथित निम्न जातियों को, क्योंकि दोनों को पता था कि हिन्दुस्तान के दो वर्ग ही सबसे आसन शिकार (सॉफ्ट टार्गेट) हैं- एक मुसलमान तो दूसरा तथाकथित दलित एवं पिछड़ा वर्ग| कहना गलत नहीं होगा कि रचनात्मक राजनीति की जो जगह एक संप्रभु राष्ट्र में होनी चाहिए वह हिन्दुस्तान में कभी नहीं दिखाई पड़ी| मुसलमान देशभक्त है ये बताने के लिए आज भी अब्दुल हमीद के नाम का सहारा लेना पड़ता है या फिर मुलायम के लेफ्टिनेंट आज़म खान की तरह ये बताना पड़ता है कि हिन्दुस्तान की सरहदों की रक्षा मुसलमानों के रहमो-करम पर है| मायावती को बार-बार ये बताना पड़ता है कि दलित सिर्फ दलित होता है और हमेशा दलित ही रहता है क्योंकि वह यदि राष्ट्र की मुख्यधारा में चला गया तो उनकी अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं का क्या होगा| किसी भी गैर हिन्दुस्तानी व्यक्ति को ये सुनकर हँसी आ सकती है या आश्चर्य भी हो सकता है कि गरीबी, कमजोरी और समस्याएं जाति देखती है और सिर्फ मुलायम और मायावती के वोट बैंक को ही आती है| जाति और धर्म की राजनीति करने वाले इन नेताओं के पास कोई भी योजना ऐसी नहीं है कि वे अपने इन्ही वोट बैंकों की समस्याओं का समूल निस्तारण एक निश्चित समयावधि में करने की घोषणा करें| ऐसी घोषणा इनके राजनीतिक व्यवसाय के प्रतिकूल है क्योंकि इन्हें अनन्त काल तक का शासन चाहिए या कम से कम अपने जीवित रहते तो ये ऐसा कदापि नहीं चाहेंगे|

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