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फैसला-पालिका, बड़ी-अदालत, फैसलाधीश !

चातक
चातक
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अफ़सोस है! तरस आता है देश की सर्वोच्च फैसला पालिका के फैसलाधीशों की समझ पर! सिर्फ एक शब्द ‘बाल-अपराध’ की व्याख्या नहीं कर पाई शीर्ष अदालत!
मामला निर्भया के साथ हुए बलात्कार का नहीं है, मामला है देश की राजनीति और क़ानून व्यवस्था की नासमझी और संवेदनहीनता का| जिस तरह शीर्ष अदालत ने साठ करोड़ आबादी के साथ पिछले कुछ दिनों में मजाक किया है वह देश के लाइसेंसी प्रबुद्ध वर्ग की विद्वता पर तरस खाने के लिए पर्याप्त है| इस बिंदु पर बहुत विस्तार में न जा कर यदि हम सिर्फ उन बिन्दुओं की बात करें जिनपर अदालत को व्याख्या/निर्णय देना था तो हमें पता चलता है कि आज हमारी अदालते उन लोगों के कब्जे में हैं जो सरल से सरल कानून की व्याख्या करने में अक्षम है| शीर्ष अदालत में बैठने वाले लोग अब उसकी गरिमा को कायम रखने में भी अक्षम हैं ये बात भी अब खुलकर सामने आ रही है, इसमें बैठे फैसलाकर्ता आये दिन अदालत को कभी नेताओं तो कभी जनता के मखौल का सबब बना रहे है| इसी शीर्ष अदालत से फुर्सत पाए एक जज साहब अपने बेतुके बयानों के लिए मशहूर भी हो चुके हैं और अब मीडिया के कंधे पर बन्दूक रखकर राजनीतिक हितो को साधने/सधवाने का काम कर रहे हैं|
बात करते हैं उस कानून की जिस पर निर्भया बलात्कार के बाद बड़ी अदालत के बड़े फैसला-प्रमुखों को फैसला देना था| बात थी ‘बाल-अपराध’ और ‘बाल-अपराधी’ की विवेचना और व्याख्या, की और ‘तर्क’ था कि वयस्कता की उम्र घटा दी जाए जिससे ऐसे तथाकथित बाल अपराधों पर रोक लगाई जा सके और उल्लंघन कंरने की दशा में उन्हें कठोर दंड दिया जा सके|
इस पूरे मामले को बड़ी अदालत ने मजाक बना डाला| विवेचना के बिंदु को छोड़कर तर्क पर फैसला दिया और वह भी कम-से-कम छह माह का जबरदस्त वेतन और सुविधाओं का उपयोग करते हुए| मुझे समझ में नहीं आता कि तथाकथित मूर्धन्यों के नाक के नीचे से हाथी निकल रहा था और उन्होंने सिर्फ पूँछ देख कर निर्णय दिया कि बाल अभी कोमल हैं इन्हें अच्छे शैम्पू से धोना चाहिए|
क्या ये आवश्यक नहीं था कि अदालत ‘बाल-अपराध’ की व्याख्या करती| बहुत सरल है- ‘बच्चों द्वारा किये जाने वाले अपराध’| फिर व्याख्या करनी थी ‘बाल-अपराधी’ की| ये भी कठिन नहीं था- ‘ऐसा अवयस्क जो ‘बाल-अपराध’ करता है’| अब देखिये कितना आसान है दोनों का सम्बन्ध और पारस्परिक व्याख्या- कोई भी अवयस्क बाल-अपराधी सिर्फ तभी है जब वो किसी बच्चे (यहाँ वयस्क और अवयस्क नहीं बल्कि बच्चे की बात है) के द्वारा किये जा सकने वाले अपराध को करता है| यहाँ ध्यान देने वाली बात ये है कि किसी भी अपराधी के लिए उम्र का निर्धारण सिर्फ तब विचारणीय हो सकता है जबकि उसका कृत्य (अपराध) बच्चों के द्वारा किये जा सकने वाले अपराधों में से हो|
अब देखते हैं निर्भया के मामले को [जिसमे एक अपराधी को बाल-अपराधी साबित करने की सारी कोशिशें कामयाब हो चुकी हैं]
सिर्फ एक सवाल का जवाब चाहिए- क्या उस अपराधी के द्वारा किया गया अपराध किसी भी तरह से बच्चे के द्वारा किये जा सकने वाला अपराध है? यदि हाँ तो निःसंदेह उसे अवयस्क होने का लाभ मिलना ही चाहिए और इसके लिए किसी क़ानून को लाने या बदलने की आवश्यकता नहीं है| परन्तु यदि अपराधी के द्वारा किया जाने वाला अपराध बच्चे के द्वारा किये जा सकने वाले अपराध से इतर है तो इसका मतलब है कि पिछले छह माह से इस देश के फैसलाधीशों ने न्याय को ताकतवर और देश की स्त्रियों को सुरक्षित करने के लिए तनिक भी अध्ययन, तनिक भी परिश्रम नहीं किया है बल्कि इस काम को करने के एवज में मिलने वाली मोटी धनराशि और सुविधाओं पर ऐश की है और डकार मारते हुए एक फैसला लिख मारा है जिसकी कोई आवश्यकता भी नहीं थी !

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