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संहारक का उपसंहार

चातक
चातक
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उत्तराखंड में हुई त्रासदी हृदय विदारक है कुछ भी समझ में नहीं आता कि इस विनाशलीला को क्या कहें! इलेक्ट्रॉनिकी मीडिया ने सर्वज्ञ होने का ठेका उठा रखा है और जब कभी भी इस दैवीय त्रासदी के बारे में चैनलों की अलग-अलग रिपोर्ट देखता/सुनता हूँ, मन में इनके लिए पहले से भी ज्यादा वितृष्णा का भाव उत्पन्न हो जाता है| लेकिन किसी भी तरह एक पल को भी ये विचार मन में नहीं आता कि प्रकृति ने अथवा दैवीय शक्तियों ने कुछ भी गलत किया है| साथ ही साथ जब छोटे-छोटे बच्चों और असहाय बुजुर्गों की बेचारगी से भरी आँखों को देखता हूँ तो मन बागी हो उठता है और सबकुछ छोड़ कर उस संहारक की इस विनाशलीला पर उससे कुछ बहुत ही कडवे प्रश्न भी करता है लेकिन अगले ही पल अपनी कमजोरी का अहसास होता है और खुद से ही प्रश्न करता हूँ- ‘क्या दुनिया का कोई भी कड़वा प्रश्न संहारक के द्वारा कंठ में धारण किये गए हलाहल से ज्यादा कड़वा हो सकता है? जिस संहारक ने मनुष्य ही नहीं बल्कि सुरों और असुरों के भलाई के लिए विषपान किया क्या उसकी आलोचना इस विनाश के लिए की जा सकती है? क्या ये जीवन हमारा अपना है? क्या हम हमेशा के लिए इस दुनिया में आये हैं? तो अन्तर्मन उत्तर देता है- हम संहारक की विनाशलीला पर प्रश्न उठाकर सिर्फ और सिर्फ मानवप्रेमी होने का ढोंग कर रहे हैं और वे कड़वे प्रश्न सिर्फ और सिर्फ हमारे जैसे ही तुच्छ इंसानों द्वारा दुखों में डूबे पीड़ितों का भावनात्मक शोषण करने के उपकरण मात्र हैं जिनसे हम स्वयं को महान और परपीड़ा को गहराई से समझने वाला सिद्ध करने की कोशिश कर रहे है| संहारक के समक्ष ये प्रश्न वैसे ही हैं प्रभाव और महत्वहीन हैं जैसे धूल के वे असंख्य कण जो हमारी साँसों के साथ हमारी देह में प्रविष्ट तो होते है परन्तु हम इसका संज्ञान तक नहीं लेते| हमारा जीवन हमारा अपना नहीं ये उसी संहारक का है वह इसका असली स्वामी है उसका जब जी चाहे जैसे जी चाहे इसे लेने के लिए भी अधिकृत है| हम अल्प समय के लिए इस धरती पर उसकी मर्जी से आये हैं और उसी की मर्जी से हमें जाना भी पड़ेगा|
अब मन कुछ शांत होने लगता है और संहारक के लिए उत्पन्न हुई कड़वाहट ख़त्म हो जाती है और फिर मन भागता है कारण की ओर- आखिर संहारक ने इतनी बड़ी विनाशलीला की पटकथा क्योंकर लिखी? तभी रोती चीखती महिलाओं का झुण्ड (जो किसी बुद्धिजीवी नेता या फिर मानवता के सबसे बड़े रक्षक चैनलों के सर्वज्ञ रिपोर्टरों की प्रेरणा से झुण्ड में अपने आंसुओं और दर्द का सार्वजानिक प्रदर्शन करने निकली हैं) मेरे मन में उत्पन्न हुई इस जिज्ञासा को भी शांत कर देता है- वे अश्रुपूरित नेत्रों और विलाप करते कंठ से कैमरे के सामने आती हैं, और कहती हैं ‘केदारनाथ की पूजा शरू करने की इतनी जल्दी क्या है? पहले हमारे आंसुओं को तो सूख जाने दो!’ (भले ही प्रायोजित है) पर ये हृदय को चीर देने वाली बात है जो नाग के विष सा असर करती है और देखने/सुनने वाले के मस्तिष्क को कोई मौका न देते हुए सीधा उनके दिलों पर असर करती हैं और इसी के साथ पूरा हो जाता है प्रसारण करने वाले चैनलों का अधिकतम टी० आर० पी० लक्ष्य!
अब तनिक भी संदेह नहीं रह जाता कि संहारक ने देवभूमि की पटकथा में इतनी बड़ी विभीषिका का उपसंहार क्यों लिखा! अलकनंदा, भागीरथी और मंदाकिनी की लहरों में गूंजने वाला स्वर उसी संहारक का था जो हमें उसके अट्टहास सा प्रतीत हुआ परन्तु वास्तव में वो संहारक की हृदयविदारक गर्जना थी जो इन्हीं तुच्छ इंसानों के दिए जख्मों के कारण उठी थी| केदारनाथ की पूजा पर प्रश्न उठाने वालों अभी भी तुम्हे लगता है कि तुम उसकी पूजा करके कोई अहसान कर रहे हो! उस विराट स्वरुप को तुम्हारी पूजा की आवश्यकता कभी नहीं थी उसकी पूजा तुम हमेशा अपनी गरज से करते आये हो और उस पर जबरदस्ती थोपी गई पूजा के साथ-साथ तुमने उसे सिर्फ आहत ही किया है| फिर भी अपेक्षा करते हो कि संहारक गंगा को अपनी जटाओं में कैद रखकर तुम्हे विनाश से बचाएगा? या तो तुम बिलकुल बेवक़ूफ़ हो या फिर बेहद मक्कार !

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