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फागुन की बयार रंगों की फुहार

चातक
चातक
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फागुन के गुन गुनगुनाती हवाएं जैसे ही तन को छूती हैं मन प्रफुल्लित होने लगता है। इधर आम के पेड़ों पर बौर आते हैं और उधर चंचल मन भी बौरा जाता है। बच्चों और नवयुवकों की बात छोडिये बुजुर्गवार भी जो तान खींचते हैं लगता है कोई पुराना सुट्टेबाज़ नई चिलम का फेफड़ा टटोल रहा हो। उस पर आ जाती है होली तो भाई बिना छेड़-छाड़ बिना रार तकरार तो होली हो ली सो सारे रिश्तों पर भारी पड़ने लगते हैं देवर-भौजाई और जीजा-साली। ठेठ अवधी की बात करें तो पूरा फागुन ससुर भी देवर हो जाता है, मेहरिया से चाहे रूठा रहे पर बहुरिया से तो सुलह हो जाता है। हम जैसे ब्लागरों की तो मानो दसों अंगुलियाँफेसबुक में और सिर जे.जे. में होते हैं यानी रंगों गुलालों की बात अलग है अपनी टेक्नो होली भी खासमखास नशीली रहती है यहाँ तो सारा इंतजाम पक्का है पुरुष-मित्रों के वचन गुलाल-अबीर उड़ाते हैं तो महिला-मित्रों की बातें रंग-बिरंगी फुहारें छोडती हैं। थोड़े कच्चे, थोड़े पक्के रंग मिलकर होली को रंगीन और फिजा को खुशगवार बना रहे हैं। ऐसे में मंच से दूर रहना थोडा मुश्किल होता है क्योंकि रंग से परहेज करने वाले भी ठिठोली को साइड-इफ्फेक्ट रहित करार दे चुके हैं। इस बार मंच पर होली के कार्यक्रम की बागडोर संभाले बसंती जी जब बिना धन्नो के ही फेसबुक पे दिखीं तो मैं भी स्वयं को रोक नहीं पाया और बिना स्वाति का जल चखे सीधा मंच का रुख किया। यहाँ आकर देखा तो पता चला गब्बर सिंह पूछ रहे हैं- कब है होली? और बसंती ना जाने कितने होली गीतों का खजाना दबाये बैठी हैं। यानी हमारे जे.जे. मंच पर भी हो चुका है रंगों का धमाका अभी देखते हैं फूटता है कौन कौन सा पटाखा!
मंच पर उपस्थित, अनुपस्थित, जाने, अनजाने सभी ब्लॉगर मित्रों को होली की हार्दिक शुभकामनाएं!

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