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फिर सफल रहे आतंकी

चातक
चातक
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अजमल आमिर कसाब और अफज़ल गुरु दो ऐसे नाम हैं जिन पर लम्बे समय तक राजनीति हुई और अंततः वह हुआ जो वास्तव में बहुत पहले होना चाहिए था। फांसी चाहे कसाब को हुई या फिर अफज़ल को, राजनेताओं से लेकर मीडिया तक ने इसकी तारीफ़ की। नेताओ ने न्यायाधीशों द्वारा किये गए कार्य का राजनीतिक फायदा उठाने में कसर नहीं छोड़ी तो मीडिया ने ये बताने में कि जब गुनाह हुआ तो भी सबसे पहले हमने बताया और जब फांसी हुई तो भी हमने ही खबर फैलाई। और इस तरह एक वर्ग ने ‘वोट’ खोजने की मानसिकता की हद कर दी तो दूसरे ने ‘नोट’। जनता तो मजबूर है ताली बजाने और ‘वाह-वाह क्या बात है’ कहने के लिए। हद तो तब हो गई जब अफजल की फांसी के समर्थन और विरोध प्रदर्शन भी शुरू हो गए। आतंकियों की कार्यवाही और देश की लचर सुरक्षा व्यवस्था का प्रश्न जो सारे घटनाक्रम के केंद्र में था किसी ने ना उठाया और न ‘इन दोनों लाइलाज बीमारियों का इलाज कैसे होगा?’ पर कोई चर्चा हुई। इस सारी कसरत का एक और पक्ष है ‘आम-हिन्दुस्तानी’ जिसकी हालत और हालात दोनों दयनीय हैं ये वही आम हिन्दुस्तानी है जो किसी भी आतंकी कार्यवाही में या तो सीधा निशाना बनता है या फिर (माननीयों की सुरक्षा में) परोक्ष रूप से। इसके बारे में सोचने की न तो जहमत उठाई गई और न आवाज। मुझे आश्चर्य होता है इस बात पर कि आतंकियों को फांसी पर लटकाने के पीछे जो मुख्य सोच होनी चाहिए वह ये कि हर हिन्दुस्तानी इस बात का अहसास करे कि वह इस देश में आतंकित नहीं बल्कि सुरक्षित है। लेकिन इन दोनों फांसियों के बाद जो स्थितियां उत्पन्न हुई या मैं ये कहूं कि जानबूझ कर सरकार और प्रशासन ने उत्पन्न की गईं उससे आतंकियों का उद्देश्य पूरा हुआ और उनका आतंक, उनकी खौफ की ताकत और ज्यादा गहराई से हिन्दुस्तानियों के दिल में बैठ गई है। सरकार और प्रशासन को इस बात का तनिक भी अहसास है तो दोनों को सार्वजनिक रूप से अपनी इस असफलता के लिए हिन्दुस्तान की आवाम से क्षमा मांगनी चाहिए।
जिस तरह से गुपचुप किसी गोपनीय साजिश की तरह दोनों आतंकियों को फांसी दी गई है वह देश के लिए अपमानजनक है और देश के नागरिकों में आपसी द्वेष फैलाने की सोची समझी राजनीतिक साजिश भी।
किसी आतंकी को फांसी देने में गोपनीयता बरतने के पीछे यदि ये सोच है कि पाकिस्तान जैसे आतंकी देश हमारे देश में कुछ उत्पात कर सकते हैं तो फिर ये अपमानजनक है कि हमारा देश एक दो कौड़ी के देश से भयभीत है। और यदि आतंरिक सुरक्षा का खतरा है तो ये विशुद्ध रूप से देश में विद्वेष फैलाने की राजनीतिक साजिश है जिसके तहत हर मुसलमान पर बिना कहे उंगली उठाई जा रही है कि वे सारे आतंकियों के समर्थक हैं।
आज जबकि शिंदे से लेकर दिग्विजय (कृपया दिग्विजय ही पढ़ें) तक सारे हिन्दू बहुसंख्यको को भगवा आतंकी कहकर ये सिद्ध करते हैं कि ‘हम किसी से नहीं डरते’, ‘देखो हम किस ढिठाई से साथ इन्हें गालियाँ देते है।’ ऐसे में अल्पसंख्यक मुसलमानों के बारे में बोलने में इनका साहस कहाँ चला जाता है? कुछ अतिउत्साही हिन्दू और मुसलमान दोनों इन नेताओं के इस आचरण को ‘मुसलमानों का हिन्दुस्तान में बोलबाला’ या ‘संगठित’ होना समझते हैं लेकिन सच्चाई ये नहीं है। सच्चाई ये है कि ऐसा करने से दो हित अपने आप सिद्ध हो जाते है-
(१) हिन्दुओं के मन में मुसलमानों ले लिए एक नफरत पैदा होती है और आम तौर पर उनके मन में ‘मुसलमान देश का गद्दार है’ जैसी बात एक सर्वमान्य तथ्य की तरह बैठ जाती है। और साथ में बैठ जाता है एक आतंक जो ना सिर्फ सीमा पार से आने वाले आताकियों से है बल्कि पड़ोस में रहने वाले हिन्दुस्तानी मुसलमान से भी, कि वह या तो आतंकी है या फिर आतंकियों का वह हिमायती जिसके कारण हिन्दुस्तान में कसाब और अफज़ल जैसे आतंकियों को गुप-चुप फांसी देनी पड़ती है।
(२) मुसलमानों के बीच ‘स्वयं को अलग रखकर ही मजबूत रहेंगे’ जैसी मान्यता पनपने लगती है और उनमे एक ऐसा तबका जन्म ले लेता है जो अकबरूदीन ओबैसी जैसी हरकते करके स्वयं को मुसलमानों का मसीहा सिद्ध करने की कोशिश करता है और सिर्फ वोट बैंक बनकर रह जाता है।
अफजल गुरु को गुपचुप फांसी देने और तिहाड़ में चुपके से दफ़न कर देने के बाद कश्मीर से लेकर काशी तक जिस तह के हाई-अलर्ट घोषित हुए और कर्फ्यू घोषित हुए वह कांग्रेस की साम्प्रदायिक वैमस्य की खाई को गहरा करने की एक ऐसी सफल साजिश है जिसे अब पूरा हिन्दुस्तान मिलकर दशकों तक नहीं पाट पायेंगे।

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