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बात नई नहीं तो बहुत पुरानी भी नहीं है। मुझे अच्छी तरह से याद है किशोरावस्था की शुरुआत के साथ ही साहित्य, राजनीति और समाज की परख भी जवान होने लगी थी। ये वो वक्त था जब आँखों को श्वेत-श्याम टी.वी. पर भी बहुत कुछ रंगीन दिखने लगा था। लेकिन भला हो हमारे उन अध्यापकों का जो पूरे मनोयोग से हमें साहित्य, समाज और राजनीति की बारीकियां व्याख्यानों के दौरान प्रदान करते रहते थे, और महती कृपा थी हमारे अनपढ़ माता-पिता की जिन्होंने कालेज से छुट्टी लेने और किसी भी तरह की सिफारिश करने पर प्रश्न उठाने तक पर तानाशाही रोक लगा रखी थी। फिर भी वैलेंटाइन डे की खुशबू कहीं न कहीं दिल तक पहुँच ही जाती थी। दोस्तों की जुगाडू मशक्कत और उनकी सखियों की विद्रोही हिमाकत हंसने और मुस्कुराने के अवसर उपलब्ध कराती रहती थी। लेकिन इन सभी क्रियाकलापों के बीच जब मित्र-मंडली परिचर्चा में होती थी और सखियों और सखाओं के प्रेम का मूल्यांकन शुरू होता था तब बातचीत ख़ासा दिलचस्प और ज्ञानवर्धक हो जाती थी। ऐसे मौकों पर मैं अक्सर उस समाज का एक जरूरी आलोचक बन जाया करता था और मुझे जिम्मेदारी मिलती थी मित्रों के प्रेम संबंधों के भविष्य पर राय रखने की। ऐसा नहीं था कि मैं लव-गुरू था बल्कि मित्रों को मेरे तर्कों के बीच कहीं थोड़ी हकीकत और थोडा फ़साना मिलता था जो शायद उन्हें अच्छा होने पर मुझपर हंसने का मौका देता था और बुरा होने पर पहले से कुछ संकेत देता था।
यहाँ पर मैं सारे तो नहीं लेकिन एक दोस्त (जो मेरे सबसे करीब था और है) के साथ हुए अनुभवों को इस मंच पर उपस्थित मित्रों से साझा करना चाहूँगा।
इस प्रेम-कथा की शुरुआत होती है कालेज से निकलने के बाद। हम दोनों ही अपने भविष्य की योजनाओं में व्यस्त रहते हुए भी एक दूसरे के काफी निकट थे। मुझे उसका प्रेम किसी बेहतरीन परीकथा की तरह प्रतीत होता है क्योंकि उसने अपनी प्रेयसी को कभी इस बात की भनक भी नहीं पड़ने दी थी कि वह उससे प्रेम करता था। दोनों के बीच उम्र का भी ख़ासा अंतर था। वह अभी कालेज में ही थी और आगे की पढाई के लिए शहर से बाहर जा रही थी। उससे ज्यादा खुश तो मेरा दोस्त था। अगस्त का महीना था जब उसके जाने से कुछ दिनों पहले मैंने दोनों को बड़े औपचारिक ढंग से इस मुद्दे पर बात करे देखा। अपने दोस्त का हाले दिल मुझे मालूम था लेकिन ये देखकर आश्चर्य होता था कि उसके दिल की बात उसके चेहरे पर झलती तक नहीं थी जबकि उसकी अघोषित प्रेमिका के चेहरे पर जो भाव हुआ करते थे वो कभी-कभी उसके हाले-दिल की चुगली कर जाते थे। खैर बात यहाँ तक ही सीमित थी। प्रेमिका के शहर छोड़ने के बाद भी काफी कुछ सामान्य सा ही चल रहा था लेकिन सितम्बर आते-आते अचानक मानो भावनाओं का तूफ़ान सा आया सुबह से लेकर शाम तक मेरा दोस्त मुझे समझाने की कोशिश करता रहा कि उसे इश्क वाला लव हो गया था और मैं उसे समझाता रहा कि अब उसे थोडा समझदार होना चाहिए और समझना चाहिए कि सच्चा प्रेम जैसी कोई चीज़ नही होती। उसे थोडा प्रैक्टिकल रहते हुए प्रेम में आगे बढ़ना चाहिए ताकि अगर आगे जोर का झटका लगे तो भी थोडा धीरे से लगे।
उसके बाद शुरू हुई एक ऐसी प्रेम कहानी जिसके हर पल का गवाह मैं था। शायद दोनों ने मुझे एक साझा राजदार रख छोड़ा था। मुझे भी आश्चर्य होता था उनके संबंधों पर दोनों सचमुच प्रेम की पराकाष्ठा को ना सिर्फ शिद्दत से महसूस कर रहे थे बल्कि जीवन के हर पल को अंतिम पल की तरह जी रहे थे। कई बार चर्चा हुई कि आखिर इस प्रेम का पता यदि समय से पहले किसी को चल गया तो क्या होगा। दोनों सारा इल्ज़ाम अकेले अपने सर पर लेकर दूसरे को सुरक्षित करने की बात करते थे। अलग-अलग शहरों में होने के बावजूद दोनों के बीच काफी बातचीत होती रहती थे और अक्सर दोनों की मुलाकातें भी होती थीं, सभी जानने पहचानने वालों की नज़रों से परे। फिर एक और राजदार जुड़ गया और ये थी उसकी प्रेमिका की छोटी बहन। हलाकि उसे दोनों के सम्बन्ध समझ में नहीं आये लेकिन उसे कोई ऐतराज हो ऐसा भी नहीं लगता था। अब तक दोनों के बीच प्रेम काफी परिपक्व हो चुका था दोनों एक ओर सामाजिक और पारिवारिक मान्यताओं और स्वीकृतियों के समक्ष नतमस्तक थे तो दूसरी ओर अपने प्रेम को आजीवन बरकरार रखने के लिए दृढ प्रतिज्ञ भी। २ वर्ष बीतते-बीतते ये तय हो चुका था कि इस प्रेम-कथा का अंजाम शादी और मिलन नहीं था। मेरे जीवन का ये पहला अनुभव था जिसे मैं सच्चे प्रेम की संज्ञा देने को मजबूर हो रहा था, हलाकि दोनों के बीच कोई दैहिक दूरी नहीं थी लेकिन इस प्रेम में अभी तक मुझे वासना का अंश मात्र भी नहीं दिखा था दोनों एक दूसरे के साथ बिलकुल बेफिक्र, खुश और जीवन की तरंगों से लबरेज दिखते थे। मुझे समझ में नहीं आ रहा था कि जब इन दोनों के अलगाव को मैं नहीं सोच पा रहा हूँ, जब इनके अलग होने की कल्पना से मैं सिहर जाता हूँ तो ये दोनों इस अवश्यम्भावी अलगाव को कैसे झेल पायेंगे। याद नहीं कि कितनी बार मैंने स्वयं उनके इस अलगाव को रोकने के लिए मन्नतें माँगी। मुझे पता था विधर्मी की दुआ क़ुबूल नहीं होती फिर भी मैंने उस दौरान परामानवीय ताकतों से इस अलगाव को रोकने की सिफारिशें की।
फिर एक दिन सबकुछ बदरंग हो गया मैं स्वयं सन्न रह गया जब दोस्त ने बताया कि वो तो किसी और से प्रेम करती है और अब वह उस पर तरह-तरह के आरोप भी लगाना शुरू कर चुकी है। हद तो तब हो गई जब उसने कहा कि उसने अपनी माँ से कहा है कि वह उसे परेशान कर रहा है और माँ थोड़ी देर में उसे फोन करने वाली है, उसकी भलाई इसी में है कि मेरा दोस्त उस पर कोई आरोप न लगाए। मैं साथ में मौजूद था और अपने मिजाज के अनुकूल मेरा क्रोध चरम सीमा पर था। फोन कटते ही मैंने अपने दोस्त को कोई अपराध बोध ना करके सच्चाई बयान करने की सलाह दी लेकिन हमेशा मेरी बात मानने वाला मेरा दोस्त पक्का आशिक निकला उसने फोन आते ही अपना ‘गुनाह’ क़ुबूल कर लिया और माफी माँगी। वह आवाज आज भी मेरे कानों में गूँज रही है उसका वह चेहरा आज भी मेरी यादों में ताजा है। चेहरे पर वहशत और आँखों में छलकती लाचारी किस तरह वीभत्स होती है मैंने देखा और हतप्रभ रह गया। ये क्या हो रहा था! क्या ये वही प्रेमिका थी जिसने किसी भी तरह के दुःख को, किसी इलज़ाम को उस तक न पहुँचने देने का अहद किया था? क्या ये वही दोस्त था जिसे हर पल मालूम था कि इस प्यार में सिर्फ अलगाव है? क्या ये उसी तरह का अलगाव था जिसकी कल्पना उसने की थी? अगर उन दोनों में प्रेम था तो फिर किसी अन्य के बीच में आने की गुंजायश कैसे हो गई? यदि वह प्रेम वासना रहित और निष्कपट था तो फिर प्रेमिका के दिल में दूसरी बार प्रेम उपजने के क्या कारण थे? आखिर उस सोच में कितनी सच्चाई थी कि वह सामाजिक और पारिवारिक मान्यताओं का सम्मान भी करती थी और अपने प्रेम को आजीवन बरकरार रखने के लिए दृढ प्रतिज्ञ भी? स्वयं को एक अन्य प्रेमी के साथ सुरक्षित करने के लिए जिस तरह के झूठ और फरेब का इस्तेमाल वह अपनी माँ और प्रेमी दोनों के साथ कर रही थी, क्या ये वही लडकी थी जो दिन में सैकड़ों बार प्रेम की कसमे खाया करती थी?
इन प्रश्नों के उत्तर मैं कभी नहीं पा सका हाँ बाद में एक बात मेरे दोस्त ने जरूर बताई कि उसने आखिरी बार हुई बात के दौरान ये जरूर कहा था कि प्यार एक बार नहीं दो बार होता है पहला जल्दबाजी और नादानी में होता है, जो उसे मेरे दोस्त के साथ हुआ था और दूसरी बार वाला सच्चा होता है जो उसे अब हुआ था। उसके बाद मेरा दोस्त कहाँ गया किसी को नहीं मालूम, वैसे भी उस अनाथ को पूछने वाला कोई नहीं था। आशा है जहाँ भी होगा अच्छा होगा, उसकी डायरी मुझे उसकी याद कराती रहती है। खैर कभी तो लौटेगा मैं इन्जार करूंगा।
इस घटना के कुछ ही दिनों के बाद उस लड़की की भी शादी हो गई लेकिन ये नहीं समझ में आया कि उसका पति एक तीसरा व्यक्ति क्यों है, वो दूसरा प्रेमी क्यों नहीं जिससे उसे सच्चा वाला प्रेम हुआ था। शायद उसका जवाब भी मुझे पता है- ‘प्यार तीन बार होता है!’ खैर जो भी हो इसी के साथ इस दुनिया में सच्चे प्रेम की तलाश का मेरा शगल समाप्त हो गया और मैं वापस उसी धारणा पर आकर पूरे विश्वास के साथ ठहर गया ‘व्यापारियों की दुनिया में प्यार जैसी कोई चीज़ नहीं सिर्फ दुकानें लगी हैं। व्यापार हो रहा है- कोई किसी के साथ व्यापार शुरू करता है, तो किसी के साथ बंद कर देता है।’
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