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खाप पंचायतें, मीडिया और मैं

चातक
चातक
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पिछले कुछ वर्षों से गावों-देहातों की खाप पंचायतें काफी सुर्ख़ियों में रही हैं। मीडिया तो अदालत की बैसाखी लेकर खापों के पीछे बिना नहाए-धोये पड़ी है। कुछ समय तक तो मैं भी खापों को ‘दुश्मन ज़माना’ या ‘खलनायक’ [आप चाहें तो दाल-भात (प्रेमी-प्रेमिका) में मूसलचंद (अमरीशपुरी) भी कह सकते हैं!], समझ बैठा था। दरअसल मैं स्वयं भी किसी हीरो से कम तो हूँ नहीं (जैसा कि मेरी प्रेमिका नंबर ०१ कहती थी, हलाकि बाद में उनकी राय में मैं ‘अमरीश पुरी’ बन गया), क्योंकि हमारी भी कुछ चार-पांच अदद (इससे कम बताने पर इन्सलटी हो जाएगी!) प्रेमिकाएं हुआ करती हैं। कहने का अभिप्राय ये है कि जब हमारी नज़रें सभी स्त्रियों में संभावित प्रेमिकाएं या बाहरवाली तलाश करने लगे तो असमंजस में फंसी अदालतें हमें ‘फेयर वेदर फ्रेंड (अच्छे समय का दोस्त)’ और खापें ‘खलनायक’ ही नजर आएँगी। तो भाई, ये था मेरा विचार जो मैंने मीडिया और अखबारों को देखकर अपने हितों की रक्षा हेतु, खापों के विरुद्ध अंतर्मन में पाल रखा था।
फिर एक दिन मेरी नज़र क़त्ल के एक जटिल केस पर पड़ी जिसको पढने के बाद मुझे एक ही बात समझ में आई- ‘किसी भी अच्छे या बुरे काम के पीछे एक ‘मोटिव’ होता है।’ बस यहीं से मेरी सोचने की दिशा और चीजों को परखने की दृष्टि बदलने लगी।
अब इस दृष्टि का पहला शिकार था मैं स्वयं। मुझे ये समझते तनिक भी देर नहीं लगी कि नज़र किसकी गन्दी है- लड़कियों को अपनी माँ, बहन और बेटी की निगाह से देखने वाली खाप पंचायतों की या मेरे जैसे सभ्य, शालीन, और चरित्रवान प्रेमी की जो हर लड़की में अपनी संभावित प्रेमिका, भोज्या या नया आइटम तलाश करती हैं। तस्वीर बदल चुकी थी- मैं स्वयं अब ‘शक्ति कपूर’ बन चुका था और खापें वे झुंझलाए हुए पिता, भाई और बेटे जो अदालतों में जाकर अपनी बेटी, बहन और माँ के बलात्कार पर उनके अपहरण और दमन पर दस-दस साल तक न्याय की भीख नहीं माँगना चाहते, बल्कि किसी-न-किसी तरह अपनी स्त्रियों की (झूठी???) इज्जत सुरक्षित देखना चाहते हैं।
मेरा चिंतन आज इतने पर थमने वाला नहीं था। अब मन उस मीडिया की तरफ भागने लगा जिसने प्रिंट मीडिया से लेकर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया तक ख़बरों के नाम पर कमाई करने और पार्श्व में रहकर सरकार और प्रशासन पर नियंत्रण करने में पूरी सफलता अर्जित कर ली है। अब मैं ये समझने की कोशिश कर रहा था कि आखिर खापों को निशाना बनाने के पीछे मीडिया का मोटिव क्या हो सकता है? एक बार तो ऐसा लगा जैसे मीडिया तटस्थ होकर ‘नारी कल्याण’ में लगा है। लेकिन जब मैंने कुछ न्यूज़ चैनलों और पत्र-पत्रिकाओं को खंगाला तो इनका ‘मोटिव’ भी आईने की तरह साफ़ और मंशा बनारस की अलकनंदा या कानपुर की गंगा से ज्यादा मैली और दुर्गन्धयुक्त थी [इन पवित्र नदियों का नाम तुलना के लिए इस्तेमाल करने का उद्देश्य यह है कि मैं लोगों का ध्यान मीडिया की पूर्ण गंदगी की तरफ आकृष्ट कर सकूं, जो सिर्फ परम्परागत सोच के कारण पवित्र मानी जा रही है।] अब मुझे दिखाई दिए अर्ध(पूर्ण)नग्न स्त्रियों के ‘बोल्ड’ चित्र और मादक अदाएं जिनके सहारे आज का मीडिया ‘दिख रहा है तो बिक रहा है’। न्यूज़(ड) चैनलों पर सार्थक ख़बरों से ज्यादा थीं नग्नता ओढ़े विज्ञापनों की बाढ़, मूवी, इंटरटेनमेंट, और टैलेंट हंट के नाम पर थिरकते नग्न अंगों की नुमाइश (की ख़बरें)। कहते हैं न- ‘पहले रोजी, फिर रोजा’। तो आजकल पत्रकारिता वह दुकान बन चुकी है जिसका सबसे बिकाऊ आइटम है स्त्री, जो ‘जितनी ज्यादा खुलेगी उतने ज्यादा दाम में बिकेगी’; कभी खबर बनकर, कभी सनसनी।
अब मुझे समझ में आ चुका था कि मीडिया कितनी दूरदर्शी है। वर्तमान में बिक रही मसाला आइटम बासी होने से पहले ताजे आइटम ढूँढने में व्यस्त मीडिया के हितों को खापें यदि अपनी चिंताओं से इसी तरह नुकसान पहुंचाती रहेंगी, तो इन दुकानों के शटर बंद नहीं हो जायेंगे? मुझे तो जवाब मिल चुका था लेकिन तब तक मेरी प्रेमिका नंबर ०२ के खूबसूरत बिकनी फिगर को मीडिया परख चुका था और बॉलीवुड के महान विचारकों के साथ उसे नई सनसनी के रूप में प्रचारित करने के लिए दस्तावेज साइन हो चुके थे। कपडे उतरवाने के साथ कुछ करोड़ मीडिया के खाते में और कुछ लाख नई सनसनी के अकाउंट में जमा हो चुके थे। मीडिया फिर अपनी मंशा में कामयाब रहा था, खापें अपनी बदनीयती की सफाई देने के लिए अदालत के सामने पेश थीं, और फिलहाल मेरे पास भी अपनी शेष प्रेमिकाओं के साथ खुश रहने के अलावा कोई दूसरा रास्ता नहीं था।


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