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आरक्षण विरोधी गधे !

चातक
चातक
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आरक्षण विरोधी आन्दोलन करने वाले सरकारी मुलाजिम अपनी एड़ी-चोटी लगाकर भी इस जंग को नहीं जीत पायेंगे इसमें कोई संदेह नहीं था। हाँ आन्दोलन के नाम पर हुडदंग करना, फिकरे-बाजी करना और नारे लगाना इन दिनों प्रचलन में है और कोई दो-राय नहीं कि कार्यालय छोड़कर छुट्टी और मटरगस्ती करने को खूब मिली और नाम आन्दोलन करने का रहा। यानी हींग लगे न फिटकरी और रंग आये चोखा।
सच कहूँ तो तरस आता है इन विरोधियों की नूराकुश्ती को देखकर और तरस आता है इस बात पर कि ये स्वयं को मेधा, हुनर और विशिष्टता के प्रतीक कह कर ऐसी लड़ाई लड़ रहे हैं जैसे भाड़े के टट्टू! आरक्षण समर्थकों के संगठन कौशल और रणनीति के आगे धाराशाई हो चुके ये विरोधी किस मुंह से स्वयं को बेहतर बताते हैं मुझे समझ नहीं आता। मुझे तो ऐसा लगता है जैसे इन किताबी कीड़ों ने किताबी ज्ञान को रट-रट कर अपने आपको श्रेष्ठ समझ लिया है और ये भूल चुके हैं कि दुनिया व्यवहारिक ज्ञान से चलती है और व्यावहारिक ज्ञान से चलाई जाती है।
एक सीधा और निर्णायक रास्ता था और यदि आज भी अक्ल काम कर जाए तो कल की तस्वीर बदल जायेगी लेकिन न तो किसी तथाकथित आरक्षण विरोधी ने वह रास्ता सुझाया और न ही उस पर विचार करने को तैयार हुआ। भेंड-बकरियों की तरह नारे मिमियाने और नचनियों की तरह जुलूस निकालने से अच्छा था ‘सौ मौखिक न एक लिखित’ का सिद्धांत अपनाते और पकड़ा देते इस्तीफ़ा लेकिन हराम की मुंह लगी है किसी की सौ लातें खा लेंगे लेकिन हराम में मिलने वाले सरकारी धन का मोह कैसे छोड़ेंगे?
अभी वक्त नहीं गुजरा है कल सुबह होगी, कल फिर कार्यालय खुलेंगे, कल का दिन हिन्दुतान की क्रान्ति का दिन हो सकता है। सर्वोच्च न्यायालय के फैसले को अगर संसद में बैठे गधे बदल सकते हैं तो गधों के निर्णय को अडिग निष्ठा और मेधा बदल सकती है।
कार्यालय खुलते ही सभी विरोधी अपने इस्तीफे मेज पर रखो, और जो भी कार्य आता है उस कार्य को करने निकलो भीड़ मत बनाओ जिसे रिक्शा चलाना आता है वो किराए का रिक्शा लेकर निकलो जिन्हें खाना बनाना आता है वो पूरी-सब्जी का ठेला लेकर निकलो, जिन्हें कुछ नहीं आता वो मजदूर की तरह काम मांगने निकलो और शाम को कमाई लेकर घर पहुँचो और अपने परिवार की जरूरतें पूरी करो। देखो २४ घंटे में देश की क्या हालत होती है।
सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश से लेकर अनारक्षित चपरासी तक सभी इस्तीफ़ा दो और लौट जाओ कार्यालय से, कायरों की तरह घर मत जाना। बहुत काम है हिन्दुस्तान में और मेधावी हो तो १०० रूपया तो कमा ही लोगे। ये कार्य एक दिन का नहीं जरूरत पड़े तो जिन्दगी भर करना लेकिन सरकारी नौकर तब तक न बनना जब तक जातीय और धार्मिक विभाजन की ये रेखा पूरी तरह से मिट ना जाए।
हिम्मत और मेधा है तो जीत तुम्हारी, साहस और मेरिट की सिर्फ डींग हांकते हो तो तुम्हारे वश का कुछ नहीं। हराम की तनख्वाह का खून मुंह में लग चुका है तो जूते साफ़ करने और मुंह की खाने में लाज नहीं आएगी। जाओ चुप-चाप अपनी नौकरी देखो चार दिन छुट्टी उड़ा के हुडदंग कर चुके हो अब फिर १० से ४ कुर्सी तोड़ो।

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