Menu
blogid : 1755 postid : 432

रेलगाड़ी और महिलायें (सर्वोच्च न्यायालय को एक खुला पत्र)

चातक
चातक
  • 124 Posts
  • 3892 Comments

ट्रेन में महिलाओं के साथ होने वाली बद्सलूकियों के बारे में अक्सर खबरे आती रहती है लेकिन आज तक (सांस्कृतिक सम्पन्नता की डींग हांकने वाले) हमारे देश की शासन, प्रशासन और कानून व्यवस्था ने ना तो इन मामलों पर कोई प्रतिक्रिया की है और ना ही कोई योजना बनाई है। स्त्रीवादी संगठन और नारी-मुक्ति का ठेका उठाने वाले संगठन [जो अक्सर मेरे जैसे लिक्खाडों (वरिष्ठ ब्लॉगर और मित्र श्री अरविन्द पारीक जी के शब्दों में) को समाज का ठेकेदार कहकर विभूषित करते रहते हैं] इन मामलों पर पहल करने के लिए भी समाज के ठेकेदारों का मुंह ताक रहे हैं।


शासन और प्रशासन से कोई पहल की उम्मीद करना तो बेईमानी होगी क्योंकि सबसे ज्यादा नारी-कल्याण यही लोग कर रहे हैं [नेता (एन० डी० तिवारी से लेकर गोपल कांडा तक) खूबसूरत कमसिन लड़कियों को अपने पैसे और रुतबे से रिझा कर उनका शशक्तिकरण करते हैं, तो प्रशासन अपने डंडे के जोर पर (कोतवाली और चौकी से लेकर मैदानों और झाड़ियों तक में) नाबालिक बालिकाओं तक का।] इसलिए इन दोनों संस्थाओं से तो कोई उम्मीद वैसे भी नहीं की जा सकती।


मुझे तो हैरानी है न्यायपालिका, जो आम आदमी की सबसे बड़ी उम्मीद है, की शिथिलता और संवेदनहीनता पर। क्या ये उस दिन का इंतज़ार कर रहे हैं जब रेलगाड़ियों में दिन-दहाड़े दसियों सामूहिक बलात्कारों की खबर आएगी? मैंने तो पढ़ा है कि मामला जब जनहित का हो तो सर्वोच्च न्यायालय किसी पोस्टकार्ड को या अखबार में छपी किसी खबर की कटिंग को जनहित याचिका के रूप में स्वीकार करके उसकी सुनवाई कर सकता है और निर्णय दे सकता है। जब हमारा संविधान ये प्रावधान देता है तो फिर सर्वोच्च न्यायालय किस याचिका की प्रतीक्षा में है? ये मामला सिर्फ आधी आबादी का नहीं है वरन ९९.९९% आबादी का है क्योंकि यात्रा के दौरान होने वाली छेड़-छाड़ और शारीरिक व् मानसिक यातनाएं सिर्फ किसी एक स्त्री की व्यक्तिगत यातना नहीं होती बल्कि हर उस व्यक्ति की यातना होती है जो बलात्कारी और नपुंसक नहीं है।


आये दिन हम सार्वजनिक स्थलों, बसों और ट्रेनों में इस तरह की घटनाओं के बारे में पढ़ते हैं और लगभग हर रोज इन घटनाओं को अपनी आँखों से देखते हैं। खासकर वे स्त्रियाँ क्या करें जिन्हें अपनी रोटी-रोजी के लिए या पढाई के लिए हर रोज एक ही रास्ते से एक ही समय पर एक ही बस या ट्रेन से गुजरना होता है? क्या उनके परिवार के लोग हर रोज मारपीट या क़त्ल करें? और जिन परिवारों में कोई लड़ने या हथियार उठाने वाला भी नहीं है उनका क्या? ये बात ऊंची-ऊंची कुर्सियों पर बैठे मूर्धन्य विद्वानों के समझ में क्यों नहीं आती? क्या इंसानियत काले हर्फों की जटिल पंक्तियों में उलझकर सिर्फ और सिर्फ मोटी तनख्वाह खाने तक सिमट कर रह गई है?


हमारा सर्वोच्च न्यायालय क्यों ऐसे व्यवस्था नहीं देता कि सार्वजनिक स्थलों, सड़कों, वाहनों इत्यादि पर पहला हक़ स्त्रियों का है और उनकी बेज्जती करने वाले किसी भी व्यक्ति को यदि वहां मौजूद समाज दंड देता है तो सिर्फ क़त्ल को छोड़कर शेष सम्पूर्ण दंड न्यायोचित है? न्यायालय को इस देश की शासन और प्रशासन व्यवस्था का पूरा हाल मालूम है और न्यायालय इस बात को भी अच्छी तरह से समझती है कि ये अधिकार यदि उन्हें दे दिए गए तो निश्चय ही वे इसका गलत फायदा उठाने से भी नहीं चूकेंगे; परन्तु ये अधिकार जब सीधे आम आदमी के हाथ में आएंगे तो इनका दुरुपयोग होने की बात ही नहीं होगी और कतिपय मामलों में यदि इनका दुरुपयोग होगा तो भी वह उस पीड़ा से बहुत ही कम होगा जो हर रोज हमारी महिलाओं को होती है।


ख़बरें जिस तरह आती है वो बयान करने की मजबूरी है, शब्द नाकाफी होने की मजबूरी है, मजबूरी है कि कहें तो कैसे कहें कि छेड़छाड़ का मतलब क्या है? क्या करते हैं वे हाथ, वे निगाहें और वे जुबान जिनके बारे में लिखा जाता है- “लड़की से छेड़छाड़/बदसलूकी की!” जो लोग अख़बारों में छपी और मीडिया द्वारा बताई गई छेड़छाड़ की खबरों के पीछे असली दर्द को नहीं समझते वे स्वयं ट्रेन या बस में यात्रा करके इस हकीकत को देख सकते है कि आज इन साधनों में यात्रा करने को विवश स्त्रियों के खूबसूरत लिबास के नीचे अंग-प्रत्यंग पर कितनी खरोंचें हैं।


मैं इन अनदेखे निशानों को उन असामाजिक और कुत्सित लोगों के हाथों की खरोंच नहीं बल्कि देश की वर्तमान शासन, प्रशासन और न्याय व्यवस्था के अपाहिज और घृणित नाखून के जख्म कहूँगा।

Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply

    Your email address will not be published. Required fields are marked *

    CAPTCHA
    Refresh