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आरती : ये सिर्फ इत्तेफाक नहीं

चातक
चातक
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“मिटटी में संस्कारों की तासीर होती है, हवाओं में संस्कृति की महक होती है।” हाल ही में लाल-बाग़ के राजा का जलवा देखने को मिला। किसी सिरफिरे ने बप्पा की पूजा पर बेतुके प्रश्न उठाये; बस फिर क्या था- लाइनें लग गईं आरती करने वालों की। हिन्दुस्तान के आम तबके से ताल्लुक रखने वाले मुसलमानों से लेकर शाहरुख और सलमान तक हाथ में आरती का थाल लिए बप्पा के चरणों में नतमस्तक नज़र आये। “या खुदा रहम! लाहौल-बिला-कूबत! इस्लाम खतरे में!” शर्त लगा लो भाई उस सिरफिरे के दिमाग में ये तीन बम जरूर फटे होंगे, लेकिन बेचारा करे तो क्या करे उसे मुसलमानों द्वारा किये गए इस जघन्यतम कृत्य, ‘मूर्ति-पूजा’ पर निश्चय ही दूरगामी परिणाम दिखने चाहिए। कुछ लोग इसे राजनीतिक चश्मे से भी देखना चाहेंगे लेकिन मुझे लगता है हकीकत वह बिलकुल नहीं जो दिख रही है। सच्चाई है- मादरे-वतन की मिटटी की तासीर; सच्चाई है- इस देश की हवाओं में घुली-मिली संस्कृति की सुगंध। हिन्दू हो या मुसलमान, जिसने भी इस देश को मातृभूमि माना है उसे इस देश की संस्कृति से कहीं न कहीं जुड़ाव जरूर होता है। कोई अज्ञानता के जाल को फैलाकर अब कितने समय तक लोगों को बेवक़ूफ़ बनाएगा? आज हर व्यक्ति जानता है कि उसके लिए आस-पास रहने वाले लोग, उनकी संस्कृति और उनकी सभ्यता से जुड़ना उतना ही जरूरी है जितना कि अपनी सभ्यता और संस्कृति को बनाये रखना।
दोज़ख का खौफ और यातनाओं का भय दिखाकर दिलो-दिमाग को गुलाम बनाना और पूरी कौम पर शासन करना, बहुत जल्दी गुजरे जमाने की दास्ताँ बनने वाले हैं। अच्छा होगा कि हम सदियों से जमी इस बर्फ को पिघलाने वाली सकारात्मक परिवर्तन की गर्मी का स्वागत करें। बप्पा के पंडाल में जलती आरती की एक लौ ने जिस तरह अज्ञानता की बर्फ को पिघलाया है वह सिर्फ हिन्दुस्तान में ही संभव है। इस लौ की गर्मी का अहसास सुखद है; अब बारी है इसके प्रकाश को समझने की जो धीरे-धीरे अन्धकार को भी हटाना शुरू कर चुकी है।
संभव है कि अगली खबर किसी मुसलमान के घर नियमित रूप से जलने वाली अखंड-ज्योति की हो।

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