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भाजपा(आर), भाजपा(एस)

चातक
चातक
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यू० पी० ए०- II


हिन्दुस्तान में इलेक्शन २०१४ का शंखनाद हो चुका है। यू०पी० ए० का कार्यकाल अपनी समाप्ति से पहले ही अपने हश्र को अपने हाथों लिख चुका है। राजनीति की शातिर चालें, बयानबाजियाँ सब मिलकर भी यू०पी०ए० के जर्जर हो चुके महल को खंडहर बनने से रोकने की हठधर्मी कोशिशें मात्र हैं। जानकार इसे अन्ना और रामदेव के आन्दोलन का प्रभाव बता रहे हैं लेकिन देशवासियों की अंतर्रात्मा से पूछिए जो चीख-चीख कर यू०पी०ए० को लोकतंत्र की हत्या का गुनाहगार बता रही है। उसे यू०पी०ए० द्वारा खोदी गई वह कब्र स्पष्ट दिख रही है जिसे उसने लोकतंत्र को दफनाने के लिए ख़ासा गहराई प्रदान की है। अब इसी कब्र में यू०पी०ए० की सरकार दफ़न होने वाली है। इस बात का पूरा अंदाजा ना सिर्फ यू०पी०ए० को है बल्कि कथित तीसरे मोर्चे और स्वयं जनता जनार्दन को भी है। अन्ना और रामदेव तो सिर्फ दो मशाल-वाहक है जिन्होंने गुपचुप तरीके से खोदी जा रही लोकतंत्र की कब्र तक हिन्दुस्तान की आवाम को पहुंचाया है आगे सारा दारोमदार, निर्णय सबकुछ जनता का है।


यू०पी०ए० की उपलब्धियां


मुम्बई में आतंकी हमले, आतंकवादियों को लेकर सरकार की देशद्रोही नीतियाँ, आरक्षण के मामले में सुप्रीम कोर्ट को भी दरकिनार करने की साजिश, बांग्लादेशी घुसपैठियों को नागरिकता देकर वोट बैंक बनाने को प्राथमिकता, साम्प्रदायिक हिंसा को लगातार बढ़ावा देना, मंहगाई पर नियंत्रण में पूर्ण असफलता, विश्वमंच पर भारत की कमजोर होती साख, बहुसंख्यकों के विरुद्ध साजिश, अल्पसंख्यकों को मुख्य धारा से ना जोड़कर सिर्फ उनकी कट्टरवादिता को बढ़ावा देना और उनकी कट्टरवादी छवि को सह देकर उकसाना, आपदा प्रबंधन में असफलता, ऊर्जा प्रबंधन में विफलता, विदेशी कंपनियों से धन लूटने के लालच में स्वदेशी उद्योगों, विचारों और पद्धतियों का दमन करना, न्याय और कानून व्यवस्था को लाचार बनाने वाले हथकंडे और साजिशें, घोटालों का पूरा साम्राज्य खड़ा करना; ये सब मिलकर भी यदि हिन्दुस्तान की आवाम के नाक के नीचे से हाथी की तरह निकल जाएँ तो भी इन सभी कृत्यों के संरक्षक मनमोहन सिंह जी और सूत्रधार सोनिया माता किसी डरावने सपने की तरह दिलों में बस चुके हैं।


यू०पी०ए० की आशाएं


इतना सबकुछ करने के बावजूद यू०पी०ए० अपने प्रदर्शन से संतुष्ट नज़र आती है तो इसका कारण है- हिन्दुस्तान में राष्ट्र-वाद का अभाव। राष्ट्र को सर्वोपरि मानकर कभी इस देश की जनता ने जनादेश नहीं दिया, बस यही एक मजबूत पक्ष है यू०पी०ए० का जिसके दम पर वो अपने द्वितीय कार्यकाल को सफल बताने का दम भर रही है। एक बात है जो इस समय सभी को कचोट रही है और वह है भाजपा की अंतर्कलह, जिसे यू०पी०ए० के लिए सबसे बड़ी राहत (या लोकतांत्रिक व्यवस्था का वरदान) कह सकते हैं।

भाजपा (आर), भाजपा (एस)


इसमें कोई संदेह नहीं है कि भाजपा अपनी अंतर्कलह से उबर नहीं पा रही है। ज्यादातर लोगों का मानना है कि भाजपा को अंतर्कलह से निजात पानी चाहिए लेकिन दलगत भावना को छोड़कर यदि व्यवहारिक दृष्टिकोण से देखें तो ये शुभ संकेत है। भाजपा में अंतर्कलह नहीं है बल्कि दो विचारधाराएँ पनप रही है- एक है ‘राष्ट्रवादी’ (तथाकथित कमुनल) तो दूसरी ‘(तथाकथित)सेकुलर’ (अवसरवादी)।


भाजपा(आर) की धुरी हैं नरेन्द्र मोदी और वे इस विचारधारा के केंद्र रातों-रात नहीं बने हैं बल्कि उन्होंने लगातार चमत्कारिक नेतृत्व और परिणाम दिए हैं। कुछ मोर्चों पर तो वे शास्त्री जी और अटल जी को भी पीछे छोड़ते नज़र आते हैं और हमें स्वीकार करना पड़ता है कि वे शास्त्री जी या अटल जी के उत्तराधिकारी नहीं वरन लौह-पुरुष सरदार पटेल की राष्ट्रभक्ति के अगले मशालवाहक हैं। मोदी का यही गुण उनके साथी कद्दावरों को बहुत अखरता है। अपवाद नहीं है परिपाटी है- नेहरु को भी पटेल खूब खटकते थे और नतीजा सामने है- पाकिस्तान तो पाकिस्तान, कश्मीर भी लाईलाज नासूर बन चुका है। भाजपा के लिए हितकर होगा कि वह निर्णय ले और मोदी को प्रधानमन्त्री पद का उम्मीदवार घोषित करे। घटक दलों के साथ मंथन और अनिर्णय की स्थिति में जाने से अच्छा है ‘एकला चलो’। कहीं ऐसा न हो कि इस बार मोदी पहल कर जाएँ और कांग्रेस(आई) और कांग्रेस(ई) की तरह इलेक्शन २०१४ भाजपा(आर) और भाजपा(एस) के ध्रुवीकरण के रूप में याद रखा जाए, और बाद में दोनों मिलकर पछ्ताएं-


‘ना खुदा ही मिला, ना विसाले-सनम;
ना इधर के रहे, ना उधर के रहे।।’

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