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मेरी महबूबा

चातक
चातक
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(एक आशिक की डायरी से)

सितम्बर ५, २०११

उसे गुनाहों की आदत थी। हर तरह के गुनाह, जिनसे मिलने वाली पीड़ा की पराकाष्ठा को महसूस तो किया जा सकता है लेकिन उसे संज्ञेय अपराध नहीं कहा जा सकता। वह हर रोज़ एक नया गुनाह करके मेरे पास लौट आती थी। उसकी आँखों में अपराध-बोध होता था, चेहरे पर मासूमियत, और आवाज़ में सम्मोहन। एक उभयपक्षीय वचन था हमारे बीच दूसरे के गुनाह को अपने सर लेने का। मैं हर बार उसके अपराध-बोध को मिटाने के लिए उसके हाथ में थमे खंज़र पर अपनी अँगुलियों की छाप लगा देता। वह मेरे ऊपर आई किसी भी विपदा(?) के सामने स्वयं आने का अहद करती, अपने सारे गुनाह मेरे माथे पर लिखती रही।
अब तक (या शायद हमेशा से ही) वो गुनाहों की अभ्यस्त थी। उसे ये समझाना नामुमकिन था कि उसका कोई कदम गलत है, क़ानून न सही हमारी अपनी नज़र में। मेरे द्वारा अपने सर पर मढ़ी गई उसकी गलतियाँ न सिर्फ उसे अपराध-बोध से मुक्त कर चुके थे बल्कि उसकी नज़र में अब सबसे बड़ा गुनाहगार मैं ही था। उसे कभी मेरे लिए किसी इल्जाम को अपने सर लेने की जरूरत नहीं पड़ी, क्योंकि मैं था उसके साथ किये गए हर वादे को निभाने के लिए। न जाने कितने गुनाह मेरे सर आयत करने के बाद वो एक अनजान दिशा में
गुम हो चुकी थी।
कुछ वक्त बीतने के बाद आज एक बार फिर वो मेरे सामने खड़ी थी। उसकी आँखों में वही अपराध-बोध, चेहरे पर वही मासूमियत और होठों पर वही सम्मोहक आवाज़ “तुमने वादा किया है मेरे हर गुनाह को अपने सर लेने का !” हाथ में थमा था एक नया खंज़र, जिस पर किसी नए गुनाह की गर्म भाप अभी शेष थी, उसने मेरी तरफ बढ़ाया। अगले ही पल मेरी अँगुलियों की छाप उस खंज़र पर थी।

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