माध्यमिक शिक्षा परिषद् ने हाईस्कूल की बोर्ड परीक्षा के लिए नयी मूल्यांकन पद्धति लागू की और व्यवस्था दी कि विद्यार्थी का मूल्यांकन पूरी तरह से बोर्ड के हाथों में ना रहकर ३०% विद्यालय द्वारा सत्रीय कार्य के रूप में और ७०% बोर्ड द्वारा लिखित परीक्षा के आधार पर होगा। इसके पीछे मंशा ये थी कि न सिर्फ विद्यार्थियों में उत्तीर्ण होने का प्रतिशत बढेगा, बल्कि छात्रों के औसत अंक भी बढ़ेंगे जिससे वे अन्य बोर्ड के छात्रों के साथ प्रतिस्पर्धा कर सकेंगे। लेकिन इन नीति के क्रियान्वयन में उतनी ही समझदारी थी जितने ‘दिल्ली से दौलताबाद’ योजना में। नीति बनाने वाले या तो स्वयं इस खेल का हिस्सा थे या फिर इतने बेवकूफ कि उन्हें इस योजना में नजर आने वाला पहला छेद ही नज़र नहीं आया। जब ३०% अंक भ्रष्ट शिक्षक, मैनेजर और जिला निरीक्षकों के रहमो-करम पर होगा तो कितने छात्रों के सुनहरे भविष्य पर रिश्वत की काली स्याही पोती जायेगी !
सबसे दुखद पहलू तो ये है कि न बोर्ड के ज्ञानी अधिकारी न इनके सत्यनिष्ठ इन्स्पेक्टर और ना ही यू०पी० की जागरूक पत्रकारिता (परिणाम आने के बाद भी) अंधों तक को नजर आने वाली सच्चाई का संज्ञान लेने के इच्छुक है।
मैं यहाँ पर एक उदाहरण देना चाहूंगा- जिले के एक विद्यालय में सत्रीय कार्यों पर अंक देने के लिए पैसों की मांग की गई। जिन छात्रों ने मांग पूरी कर दी उन्हें अंक दिए गए २५-३० जबकि रिश्वत देने से इनकार करने वाले मेधावियों को अंक दिए गए १०-११-१२ जिसकी गवाही उन छात्रों की अंक तालिका चीख-चीख कर दे रही है।
यदि विद्यालय प्रशासन से प्रश्न किया जाए तो हो सकता है उनका जवाब हो कि ये बच्चे पढने में अच्छे नहीं थे ये फिर उन्होंने सत्रीय कार्य नहीं किया था, इत्यादि। लेकिन अब सवाल पैदा होता है कि जब बच्चे पढने में अच्छे नहीं थे तो फिर उसी विद्यालय में होने वाली बोर्ड परीक्षा में उन्हें ६५/७० अंक तक कैसे प्राप्त हुए? अब दो उत्तर हो सकते हैं उन बच्चों ने उसी ईमानदार विद्यालय में नक़ल की जिसने उन्हें सत्रीय अंक ही नहीं दिए या फिर बोर्ड ने गलत मूल्यांकन किया। एक ही विद्यालय में ऐसे बच्चों की संख्या है ४२ है, तो आप अंदाजा लगा सकते हैं कि उत्तर-प्रदेश की हाईस्कूल परीक्षा में समग्र रूप में कुल कितना धन रिश्वत के रूप में जमा हुआ होगा और कुल कितने मेधावियों के भविष्य की हत्या की गई होगी ?
कुछ और यक्ष प्रश्न जो कोई भी पत्र या चैनल उठाने की हिम्मत नहीं कर रहा है- यू० पी० बोर्ड के सभी मेधावी गावों और देहातों से निकल कर क्यों आ रहे है? शहरों की मेधा अचानक सरकारी विद्यालयों से निकलकर प्राइवेट कालेजों में कैसे पहुँच गई? शिक्षा को इन्स्पेक्टर राज से मुक्त क्यों नहीं किया जा रहा है? हर सरकार बदलने के साथ शिक्षा के स्वरुप में इतना बदलाव क्यों हो रहा है? बोर्ड के मेधावी साधारण प्रतियोगी परीक्षाओं में भी सफल क्यों नहीं हो रहे हैं? पिछले ५ सत्र के टापर्स इस समय क्या कर रहे हैं? ऐसे ही अनगिनत प्रश्नों का उत्तर कौन देगा?
आशा है कि कम से कम जागरण सच्ची पत्रकारिता का फ़र्ज़ जरूर निभाएगा और ये प्रश्न उन विद्यालयों से करेगा जहाँ हमारे देश के भविष्य की हत्या रिश्वत के लिए की जा रही है।
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