भारतीय लोकतंत्र में न्याय और कानून दोनों ही सिर्फ तमाशे के सामान (बन्दर, बंदरिया और जमूरा) बन चुके हैं। मदारी का चरित्र निभाने के लिए है- ‘राजनीति’; न्याय और कानून रुपी बन्दर और बंदरिया हैं तो उनके गले में पड़ी रस्सी है जाहिलों की जमात (संसद और विधान सभाएं) और मीडिया (सही कहें तो पत्रकारिता)। आम आदमी हैं तमाशबीन और उनमे से कुछ हैं ठलुवे (यानी ब्लागरों की विचारक मण्डली)। कुल मिला कर तमाशा इतना ही है। मदारी डमरू बजाता है, बन्दर फैसला लेता है- “बंदरिया मायके नहीं जायेगी।” बंदरिया सहमती में सर हिला कर चुपचाप बैठ जाती है। बन्दर विजेता भाव से मदारी की ओर देखता है तभी मदारी बड़ी चालाकी से पलटी मार जाता है और तमाशबीनो को संबोधित करते हुए कहता है- ‘ये बन्दर नासमझ और जिद्द्दी है। बंदरिया के मायके में शादी है और ये तानाशाही कर रहा है। बताओ भाई लोग बंदरिया क्या करे?’ ज्यादातर लोग चुप हैं लेकिन कुछ ठलुवे तमाशे का पूरा मज़ा लेते हुए कहते हैं- “बंदरिया मायके जाएगी।” मदारी फिर डुगडुगी बजाता है और बंदरिया ससुराल वाले पाले से ठुमकती हुई मायके वाले पाले में जाकर बैठ जाती है। बन्दर आदमी सा मुंह बना के रह जाता है। इस पूरे तमाशे में दो चीज़ें कमाल की हैं- एक मदारी के इशारे और दूसरा बन्दर-बंदरिया के गले में पड़ी रस्सी। तमाशे की विषय-वस्तु से बन्दर और बंदरिया का कोई सरोकार नहीं है। वे न सही और गलत को समझते हैं ना ससुराल और मायका। दर्शको को तमाशा पसंद आता है, तालियाँ बजती हैं और मदारी को पैसा मिलता है। इस पैसे से बन्दर और बंदरिया को पारिश्रमिक स्वरुप भूख मिटाने को भोजन का प्रावधान भी मदारी करता है। यही तमाशा हमें भारत के न्याय और क़ानून के साथ देखने को मिलता है। आज ये दोनों व्यवस्थाएं मदारी (राजनीति) के रहमो-करम पर उसके द्वारा निर्धारित तमाशा दिखाकर अपना भरण-पोषण करने को मजबूर हो चुकी हैं। यानि इनके पास मुंह और पेट तो है लेकिन मस्तिष्क पर अपना नियंत्रण नहीं है। इनकी सोच के गले में पड़ी मीडिया और एक असंवैधानिक संविधान की रस्सी इनके लिए नियति बन चुकी है। इनके अन्दर यदि कभी ज्ञानी-मानव होने का थोडा बहुत बोध जागृत भी हो जाए तो उसे जाहिल मंडली की एक फटकार काफूर कर देती है और ये फिर से अपने कपि-मानव वाले चरित्र में लौट आते है, रस्सी और इशारे की भाषा समझने लगते हैं और तमाशा बदस्तूर जारी रहता है।
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