आश्चर्य! अद्भुत! पता नहीं मुझे आश्चर्यचकित होना भी चाहिए या नहीं! मोदी ने उपवास समाप्त किया| सद्भावना को व्यक्तिगत और राजनैतिक सीमाओं से जोड़ने का अद्भुत प्रयास किया और ऐसा करने में उनकी मंशा प्रधानमन्त्री बनने की महात्वाकांक्षा भी हो तो क्या फर्क पड़ता है! इस लोकतंत्र में एक कठपुतली तक को प्रधानमंत्री बनने की चाह होना भी गुनाह नहीं तो फिर मोदी सा पुरुषार्थी प्रधानमंत्री बने तो हर्ज ही क्या है?
मुझे एक बात और समझ में नहीं आती है कि ये मौलाना जी इस्लाम की इज्जत अपनी जेब में रखकर किस अधिकार से मोदी के मंच पर सरप्राइज़ गिफ्ट बन कर पहुँच गए? क्या वहां कोई मझाभी सम्मलेन चल रहा था? क्या मिंया जी का खुद का किरदार दागदार नहीं है कि वे एक गैर-इस्लामिक परन्तु धर्मपरायण हिन्दू को टोपी पहनाने की तिकड़म लगा रहे थे? मुझे तो लगता है टोपी ना स्वीकार करके जहाँ मोदी ने अपनी, अपने धर्म की और विभिन्नता में एकता वाले हिन्दुस्तान का मान रखा वहीँ मुल्ला जी ने इस्लाम को सिर्फ और सिर्फ एक सियासी हनक के लिए बेज्जत करने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी|
जिस आदमी को इतना भी नहीं मालूम कि अपने धर्म को दूसरों पर थोपने से नहीं बल्कि अपने धर्म पर अडिग रहते हुए दूसरों के धर्मों का सम्मान करने से सद्भावना मजबूत होगी, उसे इस्लाम मानने वालो ने इस्लाम से बेदखल करने का फतवा जारी क्यों नहीं किया? यदि मुल्ला ये कहते हैं कि उनका प्रयोजन धार्मिक नहीं था बल्कि वो एक आम आदमी की तरह मोदी से सद्भावना कायम करने गए थे तो भी उनका आचरण मर्यादित नहीं था| मुझे पूरा विश्वास है कि मोदी उस टोपी को पूरी श्रद्धा से पहनते यदि मौलाना ने प्रदेश के मुख्यमंत्री का चरण-स्पर्श करके उसकी पद-गरिमा व उसकी संस्कृति को वही सम्मान दिया होता जो वे अपने जेब में रखी टोपी के लिए चाहते थे|
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