अक्सर एक विचार, शायद एक अंतर्द्वंद मुझे व्यक्तिगत रूप से व्यथित करता रहता है:
दुनिया में (यहाँ मैं शायद नहीं कहूँगा) कोई भी ऐसा नहीं जिसे प्रेम नहीं चाहिए| वह हम लोगों के बीच रहने वाला कोई पूर्णतयः दोष व् द्वेषमुक्त इंसान हो या फिर सबसे अधिक फितूरी, अपराधी या फिर मानसिक रोगी फिर भी ऐसे में ये जान लेना या पहचान लेने का दावा करना कि किसका प्रेम सत्य है सबसे मुश्किल है| फिर भी हर आशिक यही दावा करता है कि उसका प्रेम ही सबसे सच्चा है और हर माशूक यही समझती है कि उससे अपने प्यार को पहचानने में कोई गलती नहीं हुई है|
बस यही से शुरू होती है जद्दोजहद – दो प्रेमियों का प्रेम और बीच में दुश्मन ज़माना जिसने कभी भी दो प्रेमियों को एक नहीं होने दिया| हर बार प्रेमियों के पास एक ही तर्क होता है कि दुनिया बदल चुकी है इंसान चाँद पर पहुँच चुका है और अब किसी भी आधार प्रेम का विरोध सिर्फ दकियानूसी सोच है अतः उनके खुल्लम-खुल्ला (या कहूँ छुट्टा) प्यार करने की पूरी आजादी मिलनी चाहिए|
बस यही से मेरा अंतर्द्वंद शुरू हो जाता है और कुछ प्रश्न व्यथित करना शुरू कर देते हैं- क्या चरित्रहीन आचरण प्रेम है? क्या माता-पिता दुश्मन (ज़माना) हैं? क्या सच्चे प्रेम को पहचान पाना और सच्चा प्रेम करना इतना आसान है कि किसी गली कूचे में आशिकों और माशूकों की कोई कमी नहीं? यदि ये इतना आसान है तो फिर हर साल हज़ारों की संख्या में आई. ए. एस. बनते हैं (कठिनतम इम्तिहान देने का बाद) लेकिन सदियों में कोई एक भी लैला-मजनू क्यों पैदा नहीं होते? जिनका इम्तिहान लेके हम देख सकें कि कैश के जिस्म पर लगने वाली चोटें लैला को दर्द देती हों| आखिर क्यों हमारी गलियों मोहल्लों में रहने वाली लैला, मजनू के साथ भाग जाती है और पकड़ी गयी तो मजनू पर रेप और किडनैप के आरोप लगाकर उसे रुसवाई के साथ जेल का रास्ता भी दिखाती है, या फिर तरह तरह के आरोप अपने माता-पिता पर ही लगा कर उन्हें भरे बाजार नंगा करके ही अपना अमरप्रेम सिद्ध करती है? जो इंसान पिता का खून और माँ का दूध पी कर भी उनसे प्रेम न कर पाया क्या सिर्फ एड्रीनलीन और नॉर-एड्रीनलीन के प्रभाव से उत्पन्न प्रेम को सच्चा प्रेम कहने का दम भर सकता है? राधा और कृष्ण के प्रेम का प्रभाव कब पाश्चात्य पाशविक प्रेम की झाडियों में जाकर स्खलित हो गया क्या इसका अहसास भी इन तथाकथित प्रेमियों को है?
तर्क अभी भी कायम है- दुनिया बहुत बदल चुकी है और ऐसे में प्रेम का स्वरुप कुछ तो बदलेगा ही| इस तर्क से मेरे मन में फिर सवालों का पहाड़ खड़ा हो जाता है- धरती क्या अब वनस्पतियाँ नहीं उगाती, क्या इंसान प्राणवायु छोडकर वातावरण के किसी और घटक पर जीने लगा है? क्या जल अब जीवन नहीं देता? या आपकी ही भाषा में कहूँ- क्या प्रेम अभी भी दिल की धड़कने नहीं बढाता? क्या अपने ईष्ट तो देखकर चेहरे पर मुस्कान नहीं आती? क्या आज भी लाल गुलाब प्रेम की सबसे अच्छी जुबान नहीं? तो फिर फितूरियों के हाथो में ये प्रेम का प्रतीक क्यों?
वेलेंटाइन हमारे आदर्श नहीं तो हमारे दुश्मन भी नहीं| लेकिन वेलेंटाइन के नाम पर हवस और व्यभिचार को आमंत्रण समाज के लिए नहीं, प्रेम के लिए ही घातक है| मैं भी अपनी प्रेयसी को एक खूबसूरत गुलाब देना चाहूंगा, लेकिन ऐसे नहीं कि वेलेंटाइन की आत्मा को दुःख हो कि मैं अपनी कुत्सित वासना से प्रेरित हूँ लेकिन आड़ उसके नाम की ले रहा हूँ, बल्कि इस तरह कि वेलेंटाइन भी सोचे कि प्रेम करना सिखाया मैंने लेकिन आया तो सिर्फ इस हिन्दुस्तानी को|
मैं अपनी प्रेयसी को वो गुलाब देना चाहूँगा जो मेरी माँ ने खरीदा हो, जिसकी कीमत मेरे पिता ने चुकाई हो और जिसका स्वागत करने के लिए मेरी प्रेयसी के माता-पिता पलकें बिछाए इंतज़ार कर रहे हों और जिसे मैं जब अपनी प्रेयसी के हाथ में दूं तो कह सकूं- “देखा, एक भी पैसा अपना नहीं लगाया और तू भी जरा बचत करना सीख ले| हमेशा पैसा-पैसा करती रहती है!”
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