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बिटिया के प्रश्न

चातक
चातक
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हिन्दुस्तानी समाज आज जिस सामजिक संक्रमण काल से गुजर रहा है उसमे माता-पिता और बेटी का रिश्ता अच्छी खासी बहस का मुद्दा बन चुका है आज बेटियों के पास माता-पिता के लिए किसी भी दूसरी भावना से ज्यादा सवाल हैं जबकि माता-पिता के पास या तो जवाब नहीं, या फिर हतप्रभ सूनी आँखें हैं | मेरा प्रयास है कि मैं बेटियों के सवालों और माता-पिता की खामोश गुनाहगार निगाहों को निष्पक्ष रूप में इस मंच पर रखूँ | वाग्देवी का आह्वान है ‘माँ इस रचना में एक बार फिर चातक के सर पर हाथ रखना ताकि शलाका पक्षपात न कर सके’|

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इतने ज़ख्म दिए हैं दिल पर, उसने जीना छोड़ दिया ;
जज्बातों को कुचल दिया, उसने रोना भी छोड़ दिया |
कितनी है मासूम वो देखो, कितनी भोली – भाली है ;
किसी का दिल ना दुखने पाए, सबकी बला उतारी है |
मौन रही कुछ भी ना बोली, कितनी हसरत टूट गई ;
अपने ही कुनबे की खातिर, वो अपनों से छूट गई |
तू एक रोज़ पराई होगी, बचपन से दिखलाती थी ;
लोरी में भी माँ उसको, बस मर्यादा सिखलाती थी |
उसके सपने पर ना खोलें, खुली हवा में उड़ जाएँ ;
बस इसकी ही खातिर, उसके ख्वाबों पर पाबंदी थी |
उसको पाला मगर पराया, बचपन से ही कर डाला ;
उसके जीवन को खुद, माँ-बाबा ने तर्पण कर डाला |
बहुतेरी अभिलाषा टूटी, कितनी खुशियाँ छूट गईं ;
उसके सब सपनो को उसकी, अपनी दुनिया लूट गई |
उसने कभी ना प्रश्न किया कि- वस्तु बन गई मैं कैसे ?
मुझको क्यूँकर दान किया, मूरत बेजान सी हो जैसे ?
दुनिया के छल-प्रपंच से भी, मानव का मान नहीं घटता ;
बेटी की खुशियाँ देख भला फिर, बाबा का क्यूँ मन दुखता ?
जब काँटों पर वो चलती है, तो माता हर्षित होती है ;
उसकी मुस्कान पे वो ही माँ, क्यों खून के आंसू रोती है ?
जब जीवन का अधिकार उसे, वो भाग्य-विधाता देता है ;
तो क्योंकर दुनिया वालों को, वह इसे छीनने देता है ?
उसकी दोहरी नीति पर अब, शंका ‘चातक’ को होती है ;
राधा ही हर युग में आखिर, क्यूँ अंगारों पर सोती है ?
ना ही माता, ना पिता और ना परमपिता करुणा करते ;
वो पल-पल मरती-जीती है और ये अपनी तृष्णा भरते |
उपहास बना डाला उसको, निर्लज्ज हैं कितने ये देखो ;
मर्यादाहीन जगत में वो, मर्यादा भेंट बनी देखो |
मर्यादाहीन जगत में वो, मर्यादा भेंट बनी देखो |

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