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बहुत समय पहले की बात है किसी नगर में एक अत्यंत विद्वान ज्योतिषाचार्य रहते थे | ज्योतिष का बड़ा भारी ज्ञान था उन्हें | उडती चिड़िया के परों की हवा से उसका आगा-पीछा सबकुछ बता देते थे | इंसान के किसी भी अंग पर नज़र भर पड़ जाए, उसका भूत, वर्त्तमान और भविष्य ऐसे बताते थे मानो विधि का लेखा नहीं बल्कि अपनी ही लिखावट बांच रहे हों | मजाल क्या कि आचार्य जी कह दें और टल जाए !
एक बार किसी कारण वश आचार्य जी अपने चेले-चापाटियों के साथ लम्बी यात्रा पर निकले | वापसी में जब वे रेगिस्तानी इलाके, जिसे पैदल ही पार करना था, से गुजर रहे थे तो अचानक एक शिष्य का पैर रेत पर लुढ़क रहे एक नरमुंड से टकराया | उत्सुकतावश उसने वह नरमुंड उठा लिया और ठठोली करते हुए बोला- गुरुदेव आदमी का कोई भी अंग आपके लिए उसके लेखे की खुली किताब है लेकिन इस नरमुंड को देख कर कौतुहल होता है कि क्या कंकाल पर भी विधि की लेखनी के कुछ लेखे होते हैं ?
आचार्य जी को बात थोड़ी अटपटी लगी लेकिन उनकी भी जिज्ञासा जाग उठी और उन्होंने उस नरमुंड को हाथ में लेकर चारों और से देखा, और सहसा बोले-
“बिदेस गमन, ऊसर मरन; यहुम (इसमें भी) कुछ कारन!” हाँ ! यही तो लिखा है इस पर ! महान आश्चर्य ! अभी तक मैं स्वयं इस बात पर ही विश्वास करता था कि विधि का लेखा जन्म से मृत्यु तक ही सीमित होता है परन्तु इस नरमुंड पर विधि के लेखे पर विश्वास करूँ तो अभी भी इस नरमुंड की नियति में कुछ शेष है |
सारे शिष्य दंग रह गए | एक ने कहा- ‘गुरु जी, कृपया विस्तार से कह कर हमारी जिज्ञासा का समाधान करें |’
आचार्य जी ने स्पष्ट किया – ये एक धनी साहूकार का नरमुंड है जिसने विरासत में अकूत संपत्ति पाई और अपने व्यापार से खूब धन अर्जित किया इसने अपने मरने से पहले ही अपनी राख को सदा के लिए सुरक्षित रखने को एक बड़ा समाधी स्थल बनवाया और अपने उत्तराधिकारियों को ताकीद की- कि मृत्यु के पश्चात इसका दाह संस्कार करके समग्र राख को उसी समाधी-स्थल पर जमीदोज कर दिया जाय | एक बार व्यापार के सिलसिले में ये बाहर निकला तो राह भटक गया जंगलों से गुजरते हुए काफिले पर अचानक जंगली जानवरों ने हमला किया कुछ तो भाग कर अपनी जान बचा पाए कुछ घायल हुए तो कुछ जान से हाथ धो बैठे जिनमे से एक ये भी था | इसके शव् को जंगली जानवरों ने छिन्न-भिन्न कर डाला और इसका मुंड न जाने कितने कुत्ते और भेडिये खेलते चबाते इस रगिस्तान तक ले आये और आज इसे तुम्हारी ठोकर लगी | ‘अब इसका भाग्य क्या कहता है गुरुदेव?’ शिष्य ने आश्चर्य जताया | ‘मैं भी तो यही सोच रहा हूँ कि आखिर विधि की मंशा क्या है | चलो इस साथ ले चलते हैं, देखें कि इस बार एक मृत व्यक्ति पर की गई मेरी भविष्यवाणी पर क्या निष्कर्ष निकलता है |”
सो उस नरमुंड को झोले में डाल सारे फिर अपनी राह हो लिए | घर पर पहुँच कर आचार्य जी ने सबसे पहले उस खोपड़ी को अपने अध्ययन कक्ष में एक ताख पर रखा और घर में सबको ताकीद की कि कोई भी इसे न छुए | आचार्य की पत्नी को ये बात अच्छी न लगी ‘अभी तक तो किताबों और ग्रह-नक्षत्रों में जूझते थे, अब ये नया पागलपन देखो हड्डी-गोड्डी भी बटोर के घर लाने लगे !’ उन्होंने मन ही मन सोचा पर बोली कुछ नहीं | दिन पर दिन गुजरते गए | आचार्य जी हर रोज उस खोपड़ी को देख कर घर से निकलें और हर रोज उसी को देखते-देखते सो जाएँ | एक रोज एक पड़ोसन आचार्य जी कि पत्नी से मिलने आई और उसने देखा की आचार्य के कमरे में नरमुंड रखा है | उससे रहा नहीं गया और उसने आचार्य जी की पत्नी से इसका कारन पूछा | कोई कारन हो तो बताएं न बस इसी खोपड़ी में जी लगा है उनका और क्या बताती | पड़ोसन ने कहा ‘तुम भी बड़ी भोली हो पति भूत-बेताल में फंसा है और तुम हो कि हाथ पर हाथ धरे बैठी हो | पता नहीं किस नासपीटे की खोपड़ी है, तुम्हारे पति को भी ले जायेगी तब रोवोगी | मैं तो कहती हूँ डाल के ओखली में अबहीं मूसल चला दो कुछ ऐसा वैसा हुआ तो खुद को नहीं कम से कम अपना सुहाग तो बचा ही लोगी | आचार्य जी पर मुसीबत जान पत्नी ने आनन्-फानन में खोपड़ी ओखली में डाली और चला दिया मूसल दे-दना-दन | गुस्से से चूरा उठाया और दफना दिया घूरे में |
शाम को आचार्य ने लौटते ही ताख पर निगाह डाली और देखा खोपड़ी गायब | तुरंत जवाब तलब किया | पत्नी ने पूरी बात कह सुनाई | आचार्य जी थोड़े समय तक सोचते रहे और फिर कहा- ‘सच है विधि के लेखे निराले हैं | इस साहूकार को दफ़न तो तुम्हारे घूरे में होना था, ये नाहक ही अपने लिए समाधि बना रहा था | आज इसका लेखा सच हुआ | मुझे भूख लगी है जल्दी खाना लगा दो |’
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