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अँधेरा और रौशनी

चातक
चातक
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हवा के परों पे, फिजाँ से गुजरते,

वो मदहोश चंचल परी आ रही है;

मुरादों की ताबीर बनके अँधेरा,

सजाने चली रौशनी आ रही है |

जो बेनूर हमको समझने लगे थे,

उन्हें भी मलाल आज होने लगा है;

वफ़ा की छुअन का जो देखा ये जादू,

के माटी गुलाल आज होने लगा है|

नहीं कुछ शिकायत, न खोने का गम है,

न मन में उदासी न ही आँखें नम हैं;

ये अच्छा हुआ सबने ठुकराया मुझको,

तेरी रहगुजर तक यूँ पहुंचाया मुझको|

जो धुंधली सी परछाई दिखती थी कल तक,

वो बनके हकीकत चली आ रही है;

मुरादों की ताबीर बनकर अँधेरा,

सजाने चली रौशनी आ रही है|

कभी छोड़ करके किनारे लगा था,

वो फिर लौट कर पास आने लगा है;

खुशियों का इज़हार करने की खातिर,

वो बजरे की राहें सजाने लगा है|

जो खोया, बहुत था, मगर आज कम है,

जो पाया, वो गम था, मगर अब करम है;

भले बेवफाई ने भरमाया मुझको,

वफ़ा की किरन तक तो पहुंचाया हमको|

जो मेरी तमन्ना थी, हसरत थी देखो,

वो बनके तबस्सुम चली आ रही है;

मुरादों की तस्वीर बनके अँधेरा,

सजाने चली रौशनी आ रही है|

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