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मैं तुझको ईश्वर क्यूँ मानूँ ?

चातक
चातक
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जब तेरा कोई रूप नहीं, मैं तुझको ईश्वर क्यूँ मानूँ  ?

न आये निकट, न प्रकट दिखे, न सुख-दुःख का अनुमान करे,
जब भूख से रोते हैं बच्चे, वो उनका भी न मान धरे,
जिसकी छाया के तले साँप खा जाये अजन्मे अण्डों को,
ऐसी निर्मम सत्ता को फिर अपना कैसे, क्यूँकर जानूँ ?

मैं तुझको ईश्वर क्यूँ मानूँ ?

तुझको पूजा, तुझको माना, तन काट तेरा श्रृंगार किया,
हमने भूखे रह कर निशि-दिन तेरी ज्वाला को होम दिया,
जब तेरा दीप जलाकर भी हम भटके हैं अंधियारों में,
ऐसी सुर सुरा-मदांध शक्ति को अपना हितकर क्यूँ मानूँ ?

मैं तुझको ईश्वर क्यूँ मानू ?

न कभी बनाई कुटी कोई, न शिशु को छाती लिपटाया,
सब शक्ति लगायी ध्वंस किया, संघारक शंकर कहलाया,
जब आर्तनाद को सुन्दर भी उस शिव का ध्यान नहीं खुलता,
ऐसी निज सत्ता रक्षक को, अपना संरक्षक क्यूँ जानूँ  ?

मैं तुझको ईश्वर क्यूँ मानूँ ?

ठोकर खा के हम गिरे धरा, तूने तो बाँह नहीं थामी,
जब छोड़ दिया खुद उठने को, तब भी तू था अंतर्यामी,
अब तेरा सहारा लिए बिना हम चल लेंगे, तू रहने दे !
काँटों को फूल बनाने की मन्नत भी तुझसे क्यूँ माँगू  ?

मैं तुझको ईश्वर क्यूँ मानूँ ?
मैं तुझको ईश्वर क्यूँ मानूँ ?

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