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उस शिव से मेरी लड़ाई है !

चातक
चातक
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निज शीश झुकता हूँ दर पे, क्योंकि मैं डरता हूँ उससे,
फिर भी विद्रोह भाव मन में, शिव का मैं न अनुरागी हूँ |
मैं मूक कलम से कहता हूँ, कि आम न होवे रुसवाई,
वो सह न सकेगा व्यंग मेरा, मैं उसके कोप का भागी हूँ |

सब समझे उसको शक्तिमान, लेकिन वह शक्ति से डरता है |
छुप-छुप कर देखो कितने ही नवजातों का वध करता है |
देखो ये संत विरागी बन, करते हैं शिव का नित वंदन |
शिव महाकाल का रूप धरे, उनको भरमाया करता है |
उसका जो न गुणगान करे, वो दंड भयंकर देता है |
जब उसकी ‘कृष्ण’ नहीं माने, वो विष मस्तक भर देता है |
वो नहीं सामने आता है, छुप-छुप कर रार लगाई है |

मैं हार न उससे मानूंगा, उस शिव से मेरी लड़ाई है |
शिव सर्पदंश, त्रिशूल दिखाकर मुझे डरा जब न पाया |
तो उसने माया अस्त्र चलाकर, मन में मंथन करवाया |
घनघोर अँधेरा दस-दिशि कर, ममानी चोट लगाई है |
पर हार न उससे मानूँगा, उस शिव से मेरी लड़ाई है |

उसके सारे अधिकारों को अब ‘कृष्ण’ चुनौती देता है |
लघुता को अपनी भुला आज कुछ प्रश्न प्रकट रख देता है-
जब शिव रखवाला दुनिया का तो हम सब सहमे-सहमे क्यों ?
जब पालनहारा ईश स्वयं तो बच्चे भूखे सोते क्यों ?
यदि सृष्टि को रचना और मिटाना ही उसकी प्रभुताई है |
मुझको उसकी तनती भृकुटी कि करनी अब अगुवाई है |
पर हार न मानूँगा उससे, उस शिव से मेरी लड़ाई है |

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