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आज ११/०५/२०१० को प्रकाशित श्रीमती सुहासिनी अली सहगल का लेख ‘खाप का खौफ’ पढकर बड़ी हैरानी हुई | खाप के द्वारा दिया गया फैसला निःसंदेह खाप के अधिकारों की सीमा से कहीं ज्यादा बढ़कर लिया गया फैसला था लेकिन श्रीमती अली की प्रतिक्रिया भी अपेक्षा के बिलकुल विपरीत और हैरतंगेज़ रही | उन्होंने जिस तरह से नारी मुक्ति और नारी शोषण का राग अलापा, वो भी महिलाओं के हित में कम उन्हें स्वछन्द बनाने की प्रेरणा अधिक प्रतीत हुआ | परम्पराओं को सुरक्षित रखने की बात कह कर वो समस्या के मूल बिंदु को छुपाने की कोशिश करती लगीं | शिक्षा, आर्थिक विकास, सामजिक रिश्तों, और उपभोक्तावाद की दुहाई देते समय वो भूल गयीं की कोई भी उपभोक्तावाद हमारी संस्कृति में सगोत्रीय विवाह को स्वीकार्य नहीं बना सकता | गोत्र एक होने का मतलब आपस में भी बहिन जैसा रिश्ता होता है और इसे हिंदू धर्म
में उससे भी अधम माना जाता है जिसे गोहत्या कहते हैं | श्रीमती अली को शायद रिश्तों की पवित्रता का अंदाज़ा नहीं रहा होगा इसिलए वो मुख्य मुद्दे से हटकर नारी मुक्ति का राग अलापने लगीं | मुद्दा एक लड़के और एक लड़की के अमर्यादित और चरित्र व रिश्तों को कलंकित करने के आचरण का था न की पुरुषों द्वारा नारी के शोषण का |
पंचायत की अपनी सांस्कृतिक एवं पारंपरिक जिम्मेदारियां थी जिसे पूरा करने के लिए पंचायत ने कानून को अपने हाथों में लिया | यहाँ ये याद दिलाना भी आवश्यक है कि परम्पराएँ एवं रीति-रिवाज़ कानून के प्रमुख श्रोत भी हैं | ऐसी चरित्रहीन कारगुजारियों पर कोई प्रभावी क़ानून न होना पंचायतों को मनमाना या नागवार फैसला सुनाने को प्रेरित करता है | जिस प्रकार ओ.पी. चौटाला जी खाप के पक्ष में बोलते नज़र आये और जिस तरह कांग्रेस के एक नेता खाप के समर्थन में बोले और तुरंत ही कांग्रेस पलटी मारती नज़र आई, उससे सिर्फ राजनैतिक उल्लू सीधे करने कि जुगत ही नज़र आती रही |
पंचायत के पक्ष में यदि हरियाणा के जात अदालत में अपील करते है तो यह उनका अधिकार भी है और कानून भी | लेकिन सगोत्र विवाह न तो अधिकार है न ही क़ानून फिर भी सुहासिनी जी का पंचायत, रीति-रिवाज़ और परम्पराओं के विरुद्ध इस तरह कि गैर जिम्मेदाराना टिप्पडी एक ऐसे समाज को आहत करने वाली है जिसके बारे में उन्हें तो शायद ठीक से जानकारी भी नहीं है |
पहले तो उन्हें स्वयं डाक्टर सर्वपल्ली राधाकृष्णन के विचारों पर ही मंथन करना चाहिए –
Society needs women of disciplined mind and restrained behaviour.
क्या महोदय डाक्टर राधाकृष्णन को भी पुरुषवादी सोच वाला कहना चाहेंगी | मर्यादा का मतलब प्रताडना या शोषण नहीं होता | ऐसी पुनरावृत्ति न हो इसके लिए हमे नवयुवक एवं नवयुवतियों को चरित्रवान बनने की प्रेरणा देनी चाहिए उनके गलत निर्णयों पर सजा-ए-मौत जैसी सजा नहीं | और ये तभी संभव है जब श्रीमती अली जैसे चिन्तक सार्थक और रचनात्मक चिंतन करे, समाज के दो पूरक घटकों – स्त्री और पुरुष के
बीच जहर का बीज बो कर नहीं |
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